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भूमिदान आदि दिया। इस आशय के शिलालेख भी बनवाकर लगवा दिये गये। इसी सन्दर्भ में बिट्टिदेव ने कहा, "महाकवि रन्न के 'साहस भीमविजय' काव्य के दुर्योधन की स्थिति हमें स्मरण हो आती है। उसकी अपने भाई दुश्शासन की मृत्यु के बाद जो दशा हुई वही आज हमारी हैं।"
तुरन्त तिरुवरंगदास ने कहा, "यह उपमा ठीक नहीं । सन्निधान दुर्योधन नहीं, और अरस दुश्शासन भी नहीं।"
"यहाँ दुर्योधन और दुश्शासन प्रधान नहीं। दोनों के बीच का भ्रातृभाव प्रधान हैं। रन्न का वह पद्म-भाग कितने सुन्दर भाव की अभिव्यक्ति करता है 'माँ के दूध से लेकर प्रत्येकी पहले गोf रही, Tट को तुम्हें । परन्तु इस मरण में वह क्रम उलट गया! मुझसे छोटे का मरण मुझे देखना पड़ा!' कहते हुए दुर्योधन दुःखी होता है। व्यक्ति को भूलकर यहाँ मानवीय मूल्यों को देखना चाहिए।"
तिरुवरंगदास ने यह कहकर कि, "सन्निधान का कहना भी एक तरह से ठीक हो है। बात को खतम कर दिया।
तर्पण आदि के बाद बिट्टिदेव यादवपुरी लौटे। उन्हें किसी भी कार्य में दिलचस्पी नहीं हो रही थी । उदासीन हो रहा करते । इस हालत में तिरुवरंगदास को रानी से मिलने का भरपूर मौका मिल जाया करता 1 मौके का अच्छा उपयोग किया उसने। इस समय रानी के खूब कान भरे। रानी लक्ष्मीदेवो स्वभाव से किसी भी विषय में कोई निश्चित राय नहीं रखती थी। भाग्यवश वह रानी बन गयी थी। मगर उसने किसी भी तरह से अपने व्यक्तित्व का विकास करने की कोशिश नहीं की थी। भाग्यवश जो मिल गया, वही उसके लिए बहुत था। इसलिए पिता जो भी कहते उससे सहमत हो जाती । दूसरे भी यदि कुछ कहते, उस पर भी 'हाँ' कह देती। इसी तरह उसके दिन गुजरते रहे।
एक दिन तिरुत्वरंगदास ने उसे छेड़ते हुए कहा, "देखो बेटी, तुमको अन्दर को बातें मालूम नहीं। आगे चलकर पट्टमहादेवी के जाल में फंसे रहना पड़ेगा। पास रहने पर भाई के सहायक बने रहेंगे यही सोचकर उदयादित्यरस को नंगली किसने भेजा, यह तुम्हें मालूम है ? अब तो एक तरह से निश्चितता हो गयी। वह तो दिवंगत हो चुके । एक लड़की दण्डनायक के बेटे से ब्याह दी। प्रधान जी, उनके दामाद, दो दण्डनायक, उनके बेटे, राजमहल ही में पला वक्ष धूर्त बिट्टियण्णा, ये सब एक ही गुट के हैं। सत्र पट्टमहादेवी के साथ हैं। जानती हो क्यों ? सभी वहीं नग्नधर्मी हैं । इन नग्नधर्मियों की नीति क्या हो सकती है, तुम ही सोचो। इन लोगों को छोड़कर बाकी सब लोग परेशान हैं; जो भी काम करना कराना हो तो इन्हीं से कराना होगा। बाकी लोग उनके लिए किसी काम के नहीं । अन्न रहा वह बेवकूफ मंघियरस। उन लड़कियों को आश्रय दिया पट्टमहादेवी ही ने। यों भ्रम में पड़कर वह जैसा नचाएँ, नाचता है। शंकर दण्डनाथ वगैरह इन लोगों की लापरवाही के कारण असन्तुष्ट हैं। पुनीसमय्या, मादिराज, चामय
238 :: पट्टमहादेन्त्री शान्तला : भाग। चार