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राज्य की देखभाल कर सकें, ऐसा भाग्य हमें प्राप्त हो-यही प्रार्थना करो।" ___ 'कम-से-कम इतना तो प्राप्त होगा ही।' लक्ष्मीदेवी यों मन-ही-मन कह रही थी।
इस प्रकार की कोई बात किसी रूप में छिड़ती, तो बिट्टिदेव यों कुछ कहते हुए उसका निवारण कर देते। इस बीच में राजा और रानी चार बार यदुगिरि ही आये थे। दो बार वह्निपुष्करिणी भी हो आये थे। दोनों बार संक्रमण के अवसर पर वहाँ स्नान आदि कर आये थे। यो एक तरह से दिन गुजरते गये।।
तिरुवरंगदास को बात करने के लिए कहीं कोई मौका ही नहीं मिल रहा था। राजमहल में उसके रहन-सहन के लिए अलग व्यवस्था थी। नौकर-चाकर भी उसके लिए अलग तैनात थे। पहले वह अपनी जरूरतों के अनुसार, जब चाहे अपनी बेटी से मिल लिया करता था। पर अब महाराज की उपस्थिति के कारण इसके लिए मौका नहीं मिल रहा था। रानी की भी यही हालत थी। पिता की उपस्थिति से भी बढ़कर पति का सानिध्य प्रिय लगने में आश्चर्य ही क्या? इस वजह से पिता-पुत्री का मिलन पहले की तरह नहीं हो पाता था। राजदम्पती जब यदुगिरि या वहिपुष्करिणी, जहाँ भी गये, तिरुवरंगदास को साथ नहीं ले गये । वह्निपुष्करिणी जाने की बात जब निश्चित हुई तब स्वयं रानी ने सलाह भी दी कि पिता को साथ लेते चलें। तब बिट्टिदेव ने कहा था कि, "हम दोनों के अकेले रहने में जो सुख-सन्तोष मिलेगा वह उनके रहते कैसे मिल सकता है ?" यों तिरुवरंगदास का साथ रहना नहीं हुआ था।
उनके वहाँ रहते हुए ही खबर मिली कि उदयादित्य की बेटी परलोक सिंधार गयी। थोड़े ही दिनों में एक और दुखद समाचार मिला कि उदयादित्यरस भी बीमार होकर स्वर्गवासी हो गये।
बिट्टिदेव इन दोनों की मृत्यु के आधात से अत्यन्त दुखी होकर यादवपुरी लौटे थे। इस दु:खमय स्थिति में तिरुवरंगदास को निकट रहने का मौका मिल गया। उसने बहुत आत्मीयता से अपनी सहानुभूति दिखाते हुए कहा, "सनिधान को भ्रातृवियोग के कारण जो दुःख हुआ वह स्वाभाविक है। वह बहुत भारी नुकसान है जो कभी भरा नहीं जा सकता। सन्निधान और अरसजी का भ्रातृप्रेम अन्यत्र देखने को नहीं मिलेगा। राम-लक्ष्मण जैसे आप दोनों रहे । उदयादित्यरस की आत्मा की शान्ति के लिए, आने वाले संक्रमण के अवसर पर उत्तरायण पुण्यकाल में कावेरी में तर्पण देना उचित जान पड़ता है। यह सब मैं स्वयं साथ रहकर विधिवत् करवा दूंगा।
__उसी के अनुसार महाराज ने यात्रा का इन्तजाम करवा दिया और उत्तरायण पुण्यकाल के अवसर पर मृतक की आत्मा की शान्ति हेतु कावेरी में तर्पण देकर उनके नाम पर अनेक दान दिये। खासकर निर्गुट प्रदेश के केल्लयत्ति में उनकी मृत्यु होने के कारण, वहाँ के ब्राह्मण वर्ग को, जो पोसल राज्य को अभिवृद्धि में सहायक रहे थे,
पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार :: 237