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दण्डमाथ, ये ही क्यों, डाकरस का भाई माचण दण्डनाथ, ये सब असन्तुष्ट हैं, इसलिए कि आजकल उनकी राय का कोई मूल्य नहीं। इन सभी को अपनी तरफ कर लेने के लिए अब यह बहुत अच्छा मौका है। तुम परिस्थिति को जानकर सन्निधान को संक्षेप में बता दो। वैसे वे तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं करेंगे, फिर भी मौका मिलने पर एक बार कह रखो। उनसे पूछो, “पट्टमहादेवी हम जैसी ही मनुष्य हैं न? सन्निधान को उन्होंने दूर क्यों कर रखा है?'' तब वे स्वयं उनके इस तरह के संन्यास की सत्यता का पता लगाएँगे। बेटी, तुमने उस पट्टमहादेवी की क्या बुराई की?"
।'मैंने क्या किया?"
"तुमने कुछ नहीं किया। फिर भी तुम पर यह मात्सर्य क्यों ? 'सवतिगन्धवारण' बसटि (मन्दिर) का निर्माण क्यों करवाया? अब जो तुम्हारे पुत्र हुआ, उसके जन्म के शुभ मुहूर्त के कारण महाराज ने विजय पायी। यह राजकुमार बहुत भाग्यवान् है । तुम पर को यह असूया ही 7 इस निर्माण का कारण है ? तिस पर उस मनहूस बसदि के निर्माण का सारा खर्च राज्य का। बेटी, ऊपर-ऊपर मोठी बातें करके अन्दर-ही-अन्दर देष करना उस पट्टमहादेवी का स्वभाव ही बन गया है। तुमको हठ करना चाहिए कि आगे इस सिंहासन पर जैन धर्मावलम्बियों का उत्तराधिकार न हो।"
"सन्निधान ने पहले कह ही दिया कि चारों बेटे, एक-एक दिशा में राज्य संभालेंगे। तब यह बात कैसे कहें ?"
"चारों में तुम्हारे बेटे को दोरसमुद्र का स्थान मिले। फिर देखा जाएगा।" "तो पट्टमहादेवी का..."
"तम्हें अक्ल नहीं। हमें अपना काम साधना हो तो भेद पैदा करना ही चाहिए। तुमको मालूम नहीं, पट्टमहादेवी अपना सुख-भोग किस तरह भोग रही है ? यह देखकर भी दुनिया आँखें बन्द किये बैठी है। क्या करे? अब आचार्यजी के यहाँ से चले जाने के बाद श्रीवैष्णवों के लिए यहाँ जीना तक मुश्किल हो रहा है। यही खबर मिल रही है। चाहो तो तुम स्वयं नागिदेवण्णाजी से पूछ लो। बेटी, विधर्मी मुसलमानिन को भी परमपद पहुंचाने वाला है यह श्रीवैष्णव धर्म । ऐसे धर्म का अपमान इस नग्मधर्म से हो
और वह आगे बढ़े? तब तो तुम्हारे रानी होने का क्या प्रयोजन? तुम्हें पाल-पोसकर मैंने कौन सी बड़ी सिद्धि पायी? अब तुम कुछ न कर सको तो पीछे पछताना ही पड़ेगा।"
"पिताजी, मुझे यह सब मालूम नहीं होता। आप जब कहते हैं तो लगता है कि आपकी बात ठीक है । जोश में आगे बढ़ जाऊँ तो दम घुटने का-सा होता है, और पीछे हटना पड़ता है।"
___''उसके लिए तुम्हारा डर ही कारण है। तुमको कुछ साहस से काम लेना पड़ेगा। आचार्यजी के धर्म का प्रसार केवल पूजा-पाठ, प्रवचन और पेटभर खाने मात्र
घट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 239