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यादवपुरी लक्ष्मीदेवी को स्वर्ग-सी लगने लगी। बहुत समय से अप्राप्त पतिदेव का संग-सुख पाकर अन्द उसमें एक नयी उमंग भर गयी थी। वह अपने में एक नवीनता का अनुभव करने लगी। दो ऋतुओं अर्थात् चार महीने का समय किसी तरह अन्य बाधाओं के बिना, सुख-सन्तोत्र में निमग्न हो बीतने लगा। बिट्टिदेव ने भी किसी विशेष कार्य में न लगकर अपना सारा ध्यान अध्ययन पर केन्द्रित किया । जगदल सोमनाथ पण्डित तो साथ थे ही। वे केवल चिकित्सक वैद्य ही नहीं, बल्कि वेद, शास्त्राध्ययन आदि में भी निष्णात थे। इसलिए अध्ययन में किसी कठिनाई के बिना और किसी तरह की मानसिक अस्वस्थता के बिना दिन गुजरने लगे। यहाँ रहने की सलाह जाच पट्टमहादेवी ने दी, तब सचमुच एक विचित्र भाव उनके मन में उत्पन्न हो गया था। तब उनके मन में रानी लक्ष्मीदेवी या उसके पिता तिरुवरंगदास के बारे में अधिक सद्भाव नहीं था। रानी चुप रहेगी तो भी यह तिरुवरंगदास उसे चुप रहने नहीं देगा, यही बिट्टिदेव का खयाल था। इसलिए कुछ अवांछित परिस्थितियों के उत्पन्न हो जाने की सम्भावनाएँ हो सकती हैं, महाराज को ऐसी आशंका रही थी। उन्होंने पट्टमहादेवीजी से यह बात कभी कही भी थी। उत्तर में उन्होंने एक बात कही थी, 'पति के द्वारा अनादत पत्नी झयन भी बन सकती है, इसलिए ऐसा व्यवहार हो जिससे पत्नी को आभास तक न हो कि पति उसका अनादर कर रहा है।" यह भी कहा था कि,"छोटो रानी को दूसरों की बातों के सुनने से जो गलतफहमियाँ उत्पन्न हो गयी हैं. उन्हें दूर करने की कोशिश करनी होगी।" उनकी दृष्टि में यह कार्य करना बहुत ही आवश्यक था।
अपने भाई के राजत्वकाल से दो दशकों से अधिक समय, केवल युद्धक्षेत्र में ही बीत गया था। इस कारण सभी पिताओं की तरह बच्चों के प्रति प्रेम-वात्सल्य होते हुए भी, बिट्टिदेव को अपने बच्चों के प्रति प्यार करने का बहुत ही कम समय मिलता था। अब यह एक नया काम उन पर हावी हो गया था। नरसिंह जब उठता-गिरता, कदम बढ़ाता हुआ आकर उनकी गोदी में चढ़ने की कोशिश करता तब यह एक तरह से पुलकित हो उठते । रानी तो वहीं रहा करती थी। ऐसे मौके पर वह कहती,"विजय दिलानेवाला यह आँखों का तारा पोयसल राज्य के भावी का भव्य संकेत है न? देखिए तो, सिंहासन पर बैठनेवाले प्रभु की तरह वह सन्निधान की गोद में चढ़कर कैसी गम्भीरता से बैठा हैं।"
"सिंहासन पर बैठने की सम्भावना के न होते हुए भी मैं सिंहासन पर बैठा न? मेरो जन्मपत्री ही ऐसी रही।' इसकी जानकारी होते हुए भो, बिट्टिदेव को रानी की यह रात अच्छी नहीं लगी। मगर यह कहकर मन को दुखाना नहीं चाहते थे इसलिए बोले, ''यह सब जन्मग्रहों पर निर्भर करता है। हमारे चार पुत्र हैं। चारों दिशाओं में राज्य करने के लिए चार । ठीक है न? हम भाई भी पूर्व और पश्चिम की ओर के राज्यों की देखभाल करते रहे हैं ? ऐसे ही हमारे बच्चे भी परस्पर सहयोग से चारों ओर
2.35 :: पट्टमहादेवा शान्तला : भाग चार