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तिरुवरंगदास को, जो मौन बैठा था, बात कुछ चुभ गयी। वह बोला, "न-न, उसे क्या तकलीफ? वास्तव में शहजादी को कोई तकलीफ हो तो रानी ही उसे दूर करेंगी न?"
"देखिए, मेरी सुख-सुविधा का ध्यान मेरा समप्रिय रखेगा। वह तो मेरे साथ है। मैं जन्म से शहजादी हूँ। माँगना मैं नहीं जानती, केवल देना ही जानती हूँ। इसलिए किसी को मेरे बारे में चिन्ता करने की जरूरत नहीं । आचार्य से भी मैंने यही कहा है। आएका जन्म राजघराने में नहीं हुमा। राजा से विवाह कर यह पद पाया है। पद का ऐसा मोह अच्छा नहीं। वैसे इससे मेर) कोई सरोकार नहीं। यों ही कह दिया। इसके लिए रानीजी और आचार्यजी दोनों मुझे माफ करें।" शहजादी ने कहा।
'इस यवनी का अहंकार देखा? अच्छा, आचार्यजी के जाने के बाद दिखा दूंगी कि यह रानी क्या कर सकती है। रानी लक्ष्मीदेवी ने क्रुद्ध होकर मन-ही-मन सोचा, मगर कुछ कहा नहीं । चुप रहना अच्छा नहीं समझकर इतना ही बोली, "मुझे भी कोई मोह नहीं। आचार्यजी में मेरे पिता से कहा कि तुम्हारी बेटी रानी क्यों न बने! बुजुर्गों की इच्छा को पूरा करने के इरादे से मैं रानी बनी। मैंने कभी मन में या स्वप्न में भी नहीं सोचा था।"
रानी की बात सुनकर आचार्यजी को कुछ आश्चर्य तो हुआ। फिर भी कुछ बोले नहीं। तिरुवरंगदास की ओर एक तरह की दृष्टि डाली। आचार्यजी की इस दृष्टि का भाव वह समझ गया । उसका सिर झुक गया।
"यह सब दैत्रेच्छा । वह परमात्मा किस-किस के मन में कैसी-कैसी प्रेरणा देता है, पता नहीं। सब-कुछ उसी के अनुसार होता है। मैंने तो शहजादी को बुलाया नहीं । भगवान् की प्रेरणा से वह यहाँ आयौं । पर उनके माता-पिता और बन्धु-बान्धव इसका कारण मुझको ही मानकर मेरे ऊपर आरोप लगा भी सकते हैं। मैं किसी भी तरह के किसी के आक्षेप से परेशान नहीं होता। हमारे सब काम भगवान् की प्रेरणा से होते हैं-इसे मानने पर उनकी आत्मा ही उनके कर्मों की साक्षी होगी। आगे की बात पर यों ही कभी कुछ सोचना नहीं चाहिए 1 सब पहले से नियोजित है । केवल हमें भगवान् पर विश्वास रखना चाहिए । बात कुछ विषयान्तर-सी हो गयी। अच्छा नागिदेवण्णा जी. हमारी इस इच्छा को महाराज और पट्टमहादेवी तक पहुँचाकर उनसे अवश्य पधारने का अनुरोध करें। रानीजी राजधानी जाएंगी या यादवपुरी में ही रहेंगी?" आचार्यजी ने सवाल किया।
"सन्निधान राजधानी नहीं आ रहे हैं । फिर वहाँ मेरा क्या काम? मैं यहीं यादवपुरी में रहूँगी।" रानी ने कहा।
"अच्छा, यादवपुरी कब जाएँगी?'' आचार्यजी ने फिर सवाल किया। ।" यहाँ जिस काम से आये थे वह आचार्यजी के आशीर्वाद से पूरा हो गया।
226 :: पट्टहादेवा शान्तला : शग चार