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'कौन-सा मुंह लेकर वह यहाँ आएँगी?' पद्मलदेवी ने मन-ही-मन कहा।
पट्टमहादेवी ने कहा, "यादवपुरी से सचिव नागिदवेण्णाजी स्वयं इस अन्तिम घड़ी में यहाँ आये हैं। वास्तव में उन्हें चार दिन बाद ही यदुगिरि में सम्पन्न होनेवाले एक और प्रतिष्ठा-समारम्भ के कार्य में आचार्यजी की सहायता करने के लिए वहीं रहना चाहिए था। सुना कि रानीजी आने की तैयारी में थी। आकस्मिक अस्वस्थता के कारण वे यात्रा करने की स्थिति में नहीं रहीं। हम अन्यथा न समझें, इसलिए सचिव के द्वारा ही समाचार भेजा है। हम स्वयं ही अन्न दो दिन बाद वहाँ जा रहे हैं न? हमारे साथ वैद्यजी जगदल सोमनाथ पण्डित भी होंगे।"
"ऐसी दशा में और किया ही क्या जा सकता है?" प्रभाचन्द्रजी ने कहा।
यदुगिरि जाने की तैयारियां की जाने लगी। राजपरिवार वहाँ से तीज के दिन ही रवाना हुआ और उसी दिन रात को पहुँच गया। यदुगिरि में विशेष रूप से श्रीवैष्णवों की भीड़ भर गयी थी। ऐसा नहीं कि अन्य मत के नहीं थे। वे भी आये थे, पर श्रीवैष्णवों की संख्या से बहुत कम। पनसोगे के इन्द्रजी भी उपस्थित थे। यह कहने की जरूरत नहीं कि लक्ष्मीदेवी गोद में बच्चे को लेकर उपस्थित रही। तिरुवरंगदास तो था ही। उसकी शान-शौकत का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। जहाँ देखो वहाँ वही दिखता था। वह ममता डा भाटि म रिो हान भायोजन का मात्रा वहीं है; यों ऐंठकर चल रहा था वह।
- लक्ष्मीदेवी भी चुपचाप बैठी न रही। राजकुमार को गोद में लेकर इधर उधर फुदकती फिरती रही। वह अपने विश्वस्त लोगों से कहती भी रही कि, "यही भावी पोय्सल महाराज हैं।'' इस तरह की बात हवा में फैलती जाएगी, इस बात का भी खयाल रानी लक्ष्मीदेवी को नहीं रहा। हवा का काम ही वार्तावहन है, यह ज्ञान भी उसे नहीं था। ऐसी कानाफूसी महाराज और पट्टमहादेवी के कानों तक भी पहुंच जाएगी, इस बात की जानकारी भी उसे नहीं थी। तिरुवरंगदास को सीख से उस पर मस्ती चढ़ गयी थी। साथ ही, उसे यह प्रान्त अभिमान भी हो गया था कि अपने इस पुत्र के ही कारण महाराज को विजय प्राप्त हुई है।
फिर भी महाराज ने या पट्टमहादेवी ने इस अफवाह को कोई महत्त्व नहीं दिया। इतना ही नहीं, उन दोनों ने रानी लक्ष्मीदेवी के प्रति सहज प्रेम भाव ही दिखाया।
चेलुबनारायण को प्रतिष्ठा शास्त्रीय विधि से श्रीआचार्य जी के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुई। एम्बार को पदद से पहले दिन की षोडशोपचार पूजा आचार्यजी ने स्वयं सम्पन्न की। महाराज बिट्टिदेव और पट्टमहादेवी गर्भगृह के द्वार के पास उत्तर की ओर मुँह करके बैठे हुए थे। उनके सामने दक्षिण की ओर मुँह करके शहजादी बैठी हुई थी। उसकी पंचलौह की अत्यन्त प्यारी रामप्रिय की मूर्ति गर्भगृह में उपयुक्त स्थान पर विसज रही थी।
232 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार