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"सन्निधान का यादवपुरी को आना...'
बात को बीच में ही रोककर बिट्टिदेव ने कहा, "वह सब कहा नहीं जा सकता । राजकाज की आवश्यकता आदि देख लेने के बाद, आने के बारे में विचार किया जा सकेगा।"
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"पट्टमहादेवीजी की सलाह के बाद ही न ?" लक्ष्मीदेवी को कह आया । 'पोय्सल रानी को मनमाना नहीं बोलना चाहिए।" कहकर घण्टी बजायी बिट्टिदेव
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नौकर अन्दर आया, प्रणाम किया।
"रानीजी कल यादवपुरी जाएँगी । व्यवस्था करने के लिए रेविमय्या से कहो । रानीजी अन्तःपुर में जाएँगी, पहुँचा दो।" बिट्टिदेव ने कहा ।
नौकर परदा उठाये एक तरफ खड़ा हो गया। रानी ने एक बार राजा की ओर देखा, फिर जल्दी-जल्दी चल पड़ी।
दूसरे ही दिन रानी लक्ष्मीदेवी, अपने पिता और लक्ष्मीनारायण मन्दिर के धर्मदर्शी के साथ यादवपुरी के लिए रवाना हो गयी।
रास्ते में तिरुवरंगदास बोला, "आसानी से अनुमति मिल गयी न ? नहीं तो शिव मन्दिर की नींव स्थापना तक यहीं सड़ना होता।"
पिता के मुँह को अपने हाथ से बन्द करती हुई लक्ष्मीदेवी ने कहा, "तुम्हारे मुँह पर कोई रोक-टोक नहीं ?"
"यहाँ कौन आएगा सुनने !"
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'चारों ओर पट्टमहादेवी के ही गुप्तचर हैं। यादवपुरी पहुँचने तक कुछ मत बोलना ।" उसके कान में कहा।
यह सुनकर वह हतोत्साह हो गया। वातृनियों की यही दुर्दशा होती है।
यात्रा करीब-करीब मौन में ही बीती यादवपुरी पहुँचने पर लक्ष्मीदेवी को अनुभव होने लगा कि वह किसी अपरिचित स्थान पर पहुँच गयी है। राजमहल के सब बदल गये थे। एक बंगला मात्र परिचित नौकरानी थी। वह भी तो पट्टमहादेवी की ही पक्ष की है न। इसीलिए अब उसका दण्डनायक के घर से यहाँ स्थानान्तर किया गया है। रानी के आने की खबर पहले ही राजमहल पहुँच चुकी थी। समुचित गौरव के साथ स्वागत आदि हुआ। विश्रामागार खूब अच्छी तरह से सजाकर तैयार रखा गया
था।
धर्मदर्शी रानी को राजमहल में छोड़कर अपने निवास की ओर चला गया। चंगला ने ही आकर बताया, "रानीजी के वेलापुरी जाने के बाद यहाँ बहुत परिवर्तन करना पड़ा। वहाँ विचारणा-सभा के सामने बहुत सी बातें प्रकट नहीं की गर्यो । उस वामशक्ति पण्डित ने रानीजी को ही खतम कर देने का विचार कर लिया
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार: 61