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थी। पट्टमहादेवी और महाराज को साध बिठाकर लक्ष्मीदेवी ने ही आदर के साथ उन्हें प्रेम से खिलाया। उन्होने कहा, "जहाँ कहाँ भो मैं गयो वहाँ सबसे यही बात सुनी कि
आपका दाम्पत्य श्रेष्ठ और आदर्शमय हैं। मुझे भी ऐसे श्रेष्ठ दाम्पत्य का फल मिले, यही आशीष दें।" शान्तलदेवी ने सोचा कि वाकई कितनी मुग्धा है यह ! और उसे आशीष भी दी।
___ पट्टमहादेवी को विदा करते हुए लक्ष्मीदेवी की आँखें सचमुच भर आयीं। शान्तलदेवी के हृदय में अनुकम्पा उत्पन्न हो गयी। माँ-बाप विहीन अनाथ है, सुखी रहे।' यों मन में विचार कर उठी और महाराज को प्रणाम किया। फिर रेविमय्या और रक्षक-दल के साथ शान्तलदेवी ने प्रस्थान किया।
महाराज के आने के दस-बारह दिनों के अन्दर ही रानी लक्ष्मीदेवी का स्वास्थ्य सुधर गया। उसमें एक नयी उमंग भर आयी थी। उसके पिता ने कुछ दूर की आशा भी उसके मन में भर दी थी। फलस्वरूप उसकी देह में कान्ति आ गयी थी। बिट्टिदेव और लक्ष्मीदेवी के दाम्पत्य जीवन में एक नयी चमक आ गयी थी। बिट्टिदेव को वास्तव में कुछ विशेष कार्य भी नहीं था। लगातार अनेक वर्ष युद्ध क्षेत्र में व्यतीत करने के बाद, यादवपुरी का यह विश्रान्त जीवन उनके लिए एक तरह से अपेक्षित सन्तोष देने में समर्थ हुआ।यों महीनों पर महीने बीतते चले गये। अपने माता-पिता की तृप्ति हेतु निर्मित होनेवाले युगल-मन्दिर के लिए केतमल्ल काफी धन व्यय कर रहे थे। काम जल्दी-जल्दी होने लगा था। वेलापुरी के मन्दिर के निर्माण में जितना समय लगा था, उससे आधे से भी कम समय में ही यह निर्माण पूरा हो जाएगा, ऐसी तीव्र गति से कार्य चल रहा था। शान्तलदेवी की देखरेख जब हो तो वहाँ आलस्य के लिए स्थान ही कहाँ ? प्रतिदिन केतमल्लजी कार्य का निरीक्षण करते और दूसरे दिन की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में विचार-विनिमय कर लेते।
एक दिन वह कुछ चिन्ताकुल होकर आये। उनकी मुख-मुद्रा को देखकर शान्तलदेवी ने प्रश्न किया, ''आज कुछ चिन्तित-से लग रहे हैं ?"
"रेखाचित्र के अनुसार इस मन्दिर के तैयार होने और उसमें महादेव की प्रतिष्ठा होने तक पता नहीं, मेरी मातृश्री जीवित रहेंगी या नहीं। आज वैद्यजी ने भी कुछ ऐसी ही शंका व्यक्त की है। मेरी माताजी कहती हैं, 'जल्दी प्रतिष्ठा करवा दो, अपनी आँखों से दर्शन कर महादेव के चरणारविन्दों में शरण पा लूँगी।' मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है कि क्या करूँ । माँ से यही कहता आया हूँ कि जल्दी ही कार्य पूरा हो जाएगा। आज वैद्यजी की बात सुनने के बाद मेरे मन में कुछ अधिक आतंक छाया हुआ है।" केतमल्ल ने कहा।
"बैठिए।" कहकर शान्तलदेवी ने स्थपति हरीश को बुलवा भेजा। स्थपति के आने पर उनसे विचार-विमर्श किया।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 13