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"सन्निधान की विजय-प्राप्ति के लिए, भगवान् सन्निधान को यह विजय निधि रूप से दें इस्र प्रार्थना के लिए, इस महामस्तकाभिषेक का आयोजन है। शान्तिनाथ मन्दिर की स्थापना का दूसरा कोई उद्देश्य नहीं, सभी की अभिलाषाएँ एक-सी नहीं होती। स्वार्थ का होना सहज है। ऐसे कुछ लोगों का स्वार्थ राजमहल की एकता को भंग कर सकता है। ऐसों को मानसिक समाधान मिले, शान्ति मिले, इसके लिए शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिष्ठा की जा रही है।"
वर्धमानाचार्य और शान्तलदेवी के नाट्यगुरु गंगाचार्य, दोनों ने निर्मित होने वाले मन्दिर के वास्तुचित्र की रूपरेखा तैयार करने में कवि बोकिमय्या की भी सलाह ले ली थी। शान्ति-लाभ के हो उद्देश्य से निर्मित होने वाले मन्दिर के निर्माण कार्य में उनके बाल्यकाल के गुरुओं का भी सहयोग मिल रहा था, इससे शान्तलदेवी को विशेष सन्तोष हुआ। मन्दिर के निर्माण कार्य के लिए बाहर से शिल्पियों को बुलवाने की आवश्यकता नहीं थी। इन दिनों वहाँ अनेक मन्दिरों का निर्माण हो रहा था इसलिए बाहर से भी अनेक शिल्पी आये हुए थे। अलावा इसके, बेलुगोल में ही कई प्रसिद्ध शिल्पियों के घराने थे। उनमें पल्लवाचार्य, धनपालाचार्य के घराने दो-तीन सदियों से काफी प्रसिद्ध थे। इन घरानों के शिल्पियों ने मन्दिर निर्माण के कार्य में अपना पूर्ण सहयोग दिया।
पंच गुरुओं के समक्ष विधिवत् नींव-स्थापना का कार्य सम्पन्न हुआ। इसके तुरन्त बाद मन्दिर निर्माण का भी कार्य शुरू हो गया। नींव-स्थापना एवं महामस्तकाभिषेक समारोह, इन दोनों में समय का अन्तर कम था। दही, दूध, चन्दन आदि से बाहुबली स्वामी का मस्तकाभिषेक हुआ। हजारों भक्त कलशों को ऊपर ले गये। बाहुबलो स्वामी के मस्तक तक पहुँचने के लिए मजबूत सीढ़ियों का निर्माण करवाकर, उन पर तख्ने बिछवा दिये गये थे। इस तरह एक सुभद्र मंच का निर्माण करवाया गया था। निष्काम प्रेम-भावना से ऊपर पहुँचाए कलशों से पुजारियों ने अभिषेक करना आरम्भ किया । स्वामी के चरण-कमलों के पास खड़े होकर पट्टमहादेवी आदि ने मस्तकाभिषेक के इस भव्य दृश्य को देखा, तो देखते ही रह गये। क्षण भर में दही, दूध से अभिषिक्त वह विराट मूर्ति संगमरमर की तरह चमकने लगी। स्वामी के चरणों पर से बहने वाले अभिषिक्त दही दूध आदि पंचामृत को भक्तगण अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति के साथ लेने लग गये।
पंचामृत-अभिषेक के बाद फलोदक, गन्धोदक से अभिषेचन हुआ। फिर बाहुबली अपने महज रूप में एक नवीन शोभा से युक्त दिखाई पड़ने लगे। एक अनिर्वचनीय पवीन तेज उस मूर्ति में उत्पन्न हो गया हो, ऐसा लग रहा था।
बाहुबली का मस्तक फूलों से सज गया। उस दिन भक्तों द्वारा दी हुई किसी वस्तु को भगवान बाहुबली ने अस्वीकार नहीं किया। उन्हें किस अलंकार की अभिलाषा है?
214 :: पट्टमहाबली शान्तला : भाः चार