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तीनों में कोई एकसूत्रता है, ऐसा लगता है। इसलिए भविष्य में यह जिनालय विजयपार्श्वनाथ जिनालय के नाम से अभिहित हो। उसी तरह से हमारे पुत्र का भी नाम विजय नरसिंह ही होना चाहिए। लौटते हुए आप यादवपुरी जाकर यह आदेश रानीजी को सुनाकर डा" बिदिदेन जोले।
"सन्निधान हो पधारकर नामकरणोत्सव को सम्पन्न करें तो उचित होगा।" इन्द्रजी ने कुच्छ अपनी सीमा लाँघकर कहा।।
''आचार्यजी के आशीर्वाद से बढ़कर कुछ और नहीं। अलावा इसके राजकीय कारणों से हमें यहाँ कुछ समय और रहना है, जिससे राज्य की सुरक्षा हो सके।" बिट्टिदेव बोले।
पश्चात् महाराज की तरफ से भी इन्द्रजी को पुरस्कृत किया गया।
"एक विशेष बात है 1 इसे सन्निधान से एकान्त में निवेदन करना चाहूँगा।" कहकर उन्होंने चारों ओर दृष्टि डाली।
__ "यहाँ जो लोग हैं वे सब बहरे हैं, यह बात उन्हें मालूम है । बताइए!" बिट्टिदेव बोले।
इसके बाद मत-मतान्तर सम्बन्धी जो बातें सुनी थीं और पट्टमहादेवी से इस सम्बन्ध में जो बातचीत हुई थी, वह सारा वृत्तान्त इन्द्र ने कह सुनाया।
"ठीक। पट्टमहादेवीजी ने बहुत ठीक जवाब दिया है। आप निश्चिन्त रहें। हमारे राज्य में सब मत-धर्मों के लिए समान स्थान है। कोई ऊँचा नहीं, कोई नीचा नहीं। आप जिस वाहन में आये, उसी में लौट सकते हैं। सारी व्यवस्था के लिए आदेश भेज दिया जाएगा।" कहकर महाराज ने उन्हें विदा किया। वे लौट गये। लौटते समय वे दोरसमुद्र की ओर नहीं गये। बेलुगोल से होकर यादवपुरी पहुंचे और महाराज का सन्देश रानीजी को सुनाकर पनसोगे चले गये।
तिल्वरंगदास ने कहा, "और क्या बेटी, देखा अपने बेटे के प्रभाव को! उसके जन्म के दिन हो महाराज को विजय प्राप्त हुई। फिर उन्होंने खुश होकर बेटे का विजयनरसिंह नाम रखा है। ऐसे में मेरी योजना के अनुसार ही सब हो रहा है, यह प्रमाणित होता जा रहा है न बेटी? यह बात शिलालेख में अमर बना देनी चाहिए। तुम मान जाओ तो उसे उत्कीरित करवा देता हूँ।"
लक्ष्मीदेवी ने पूछा, "महाराज की स्वीकृति चाहिए न?'।
"राज्य में स्थापित सभी शिलालेखों के लिए महाराज की पूर्व-स्वीकृति नहीं रही। कई शिलालेखों का अस्तित्व भो महाराज को मालूम नहीं। इसलिए तुम चिन्ता मत करो। इसके अलावा, तुम्हें यह बात बतानेवाले भी जिन-भक्त हैं. इसलिए भी इसका विशेष महत्त्व है।"
"कुछ भी हो, हमारी किसी भी क्रिया से दूसरों को असन्तोष हो, यह मैं नहीं
पट्टमहादेवी शन्तला ; भाग नार :: 223