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'अच्छा पुजारीजी, कहाँ पनसोगे, कहाँ यह दोरसमुद्र और अब कहाँ यह बंकापुर! आपकी राजभक्ति कितनी बड़ी हैं स्वयं आप ही को प्रसाद लाना पड़ा, किसी के जरिये भिजवा देते ?"
"ऐसा नहीं, पट्टमहादेवीजी। इसका एक कारण है। हमारी तरफ अभी एक जोरदार समाचार फैला है। अब पोय्सल राज्य वैष्णव राज्य हो गया हैं, जैन दूसरे दर्जे की प्रजा होंगे। अब तक का उनका प्रभाव आगे चलकर मिट्टी में मिल जाना है, इसलिए प्रसाद देने के बहाने हम महासन्निधान के सामने अपने इस दुख-दर्द का निवेदन करेंगे। उनसे हमें आश्वासन मिलना चाहिए। जब तक आप हैं, हमें कोई डर नहीं। लेकिन उसके बाद ?"
"महावीर स्वामी के जन्म को कितने वर्ष बीत गये, आपको मालूम है ?" "हजारों वर्ष हो गये होंगे।" "ऐसा नहीं, निति
से ज्ञात कीजिए
हुए
हैं। इतनी दीर्घ अवधि में भी जैन धर्म मिट्टी में नहीं मिल सका है, तब फिर आपको डर किस बात का ?"
"तो सन्निधान का सन्दर्शन जरूरी नहीं ?"
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'मैंने यह नहीं कहा। आपको जरूर हो आना चाहिए, सारी बातों का निवेदन भी कर देना चाहिए। यहाँ हमारी आपस की बातचीत के बारे में बताना, शुभ समाचार भी देना। मैं आपकी यात्रा की व्यवस्था करवा रही हूँ। राजमहल की शुभवार्ता ले जाने वाले आपको पैदल जाने की जरूरत नहीं ।"
"रूप भाग्यवान् हैं।" इन्द्रजी ने कहा ।
व्यवस्था हुई । वे आराम से बंकापुर जा पहुँचे। महाराज बिट्टिदेव को पुत्र जन्म का शुभ समाचार सुनाया। कहा, "भाग्य के प्रतीक के रूप में पुत्र का जन्म हुआ है। महासन्निधान की विजय ने राष्ट्र की जनता को खुशी दी है। ऐसे अवसर पर पनसोगे में नवप्रतिष्ठित पार्श्वनाथ भगवान् का महाप्रसाद सन्निधान को समर्पित करते हुए हमें आज अपार हर्ष हो रहा हैं। पट्टमहादेवीजी ने यह शुभ समाचार सन्निधान से निवेदन करने के लिए विशेष व्यवस्था कर हम पर अनुग्रह किया है।"
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'नामकरण के विषय में कोई समाचार आपको मालूम है ?" बिट्टिदेव ने इन्द्र जी से पूछा ।
" रानीजी के पिताजी ने जाकर श्री आचार्यजी को समाचार सुनाया तो उन्होंने इस पर सन्तोष प्रकट किया और कहा, 'यह सब हमारे इष्टदेव नरसिंह भगवान् की कृपा हैं।' इस कारण से राजकुमार का नाम नरसिंह रखने का आदेश भी दिया हैं। " इन्द्रजी ने कहा ।
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'अच्छा हुआ। हमारी विजय, पुत्र-जन्म और पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा, इन
222 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार