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"आप चाहे जहाँ रहें, काम होता रहेगा। जल्दी क्या है?"
"काम हो जाने के बाद बहुत समय तक नहीं रहना चाहिए। इस नींव-स्थापना के ही लिए मैं रुकी रही। फिर तो प्रतिष्ठा-समारम्भ के लिए आऊँगी ही न? शुभ दिन देखकर हमें भेज दो।" ___"आपको इच्छा। उसकी व्यवस्था करेंगे। आप लोग चली जाएँगी तो मुझ अकेली को सूना-सूना लगेगा।"
"तुम्हें फुरसत मिले तब न सूनापन का अनुभव होगा? सोते में कम-से-कम तुम्हारा मन तटस्थ रहता है या नहीं, कहा नहीं जा सकता।"
"निद्रा शरीर के लिए है। हमारा अन्तर्मन सदा जाग्रत रहता है।"
"ये सब बातें हमारी समझ में आती ही नहीं। चलो, जाने की अनुमति तो मिल गयी. गही काफी है।"
रानी लक्ष्मीदेवी वहिपुष्करिणी में बहुत दिन न रहीं। राजमहल-सी सुविधाएँ वहाँ कहाँ? फिर भी रेविमय्या ने जितना बना, उतना इन्तजाम अवश्य किया था।
तिरुवरंगदास ने बेटी को सलाह दी, "यादवपुरी में ही रहकर, यहीं तुम्हारा पुत्रोत्सव हो तो अच्छा। यह भी तो राजधानियों में से एक है। यहीं का राजमहल भी भव्य है। साथ ही, सहयोगी जन भी हैं। और फिर, स्वयं आचार्यजी निकट हो रहते
"आचार्यजी पास या दूर जहाँ भी रहें, इससे क्या? उन्हें तो इस दुनिया में एकमात्र पट्टमहादेवी ही दिखती हैं।" लक्ष्मीदेवी ने कहा।
"बेटी! तुम्हें उनके बारे में मालूम नहीं। वास्तव में तुम्हें उनसे बातचीत करने का तरीका पालूम नहीं। उनका स्थान- मान क्या हैं, कैंसी परिस्थिति है, कैसे बुद्धिमानी से काम बना लेना चाहिए- यह सब तुमको मालूम नहीं। सभी बातों को वे सबके सामने कह नहीं सकते। इतना ही नहीं, सार्वजनिकों के सामने मट्टमहादेवी के बारे में व्यावहारिक दृष्टि से उसी तरह बोलना चाहिए, क्योंकि राज्य की सारी जनता में यह विश्वास है कि पट्टमहादेवी देवलोक से उतरी साक्षात् देवी ही हैं। उनके विरुद्ध कुछ कहकर जी नहीं सकते। लोगों को अपना विरोधी बनाकर अपने मत का प्रसार आचार्यजी कर भी कैसे सकते हैं ? इसलिए धर्म के संरक्षण के लिए, संन्यासी होते हुए भी, उन्हें बाहर से ऐसा कहना पड़ता है। लाचारी है। यों झूठ बोलने के प्रायश्चित्त के रूप में वे जिस नरसिंह की पूजा करते हैं. उन्हें दो फूल ज्यादा चढ़ा देते हैं। उनसे मेरा अन्तरंग परिचय
218 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार