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हैं। तुम उनकी बातों पर विशेष ध्यान मत दो। जब मैं मौजूद हूँ तब तुम्हें किस बात का डर है?"
"लोग पट्टमहादेवी के लिए तरसते रहते हैं न! इसका क्या कारण है ? सन्निधान तक का नाम इतना नहीं लेते!"
"वह सब प्रचार का परिणाम है। यहाँ की राजनीति से जब से उसका सम्पर्क हुआ, तब से अपने व्यक्तित्व के बड़प्पन को प्रमाणित करने के लिए वह बड़ी-बड़ी योजनाएं संचालित करती आयी है। मुंह से कहती है एकता की बात । लोगों में यह भावना पैदा करती आयी है कि जो भी होता है वह सब उसी की कृपा से। हंसतेहँससे ही बलवानों का बल कम करके उन्हें अपने प्रभाव में लेकर अपने व्यक्तित्व की धाक जमा लेती है।"
"मैं भी ऐसा नहीं कर सकती?"
"क्यों नहीं? परन्तु जल्दबाजी में यह सब नहीं हो सकेगा। जैसा मैं कहूँ वैसा करती जाओ तो सब कुछ साधा जा सकता है।" ।
"ठीक हैं पिताजी, ये सब बातें मेरी समझ में कहाँ आती हैं ? परन्तु सतर्क रहें। आप थोड़ी जल्दबाजी कर बैठते हैं। आपके कामों के कारण मैं बदनाम न हो जाऊँ। साथ ही सन्निधान को भी मुझसे असन्तोष न हो। फिलहाल उनकी मेरे विषय में अच्छी राय है।"
"क्या यह सब मैं नहीं जानता, बेटी? वास्तव में तुम बड़ी भाग्यवती हो । तुम रानी बनी, यही इसका प्रमाण है। तो बताओ, अब यादवपुरी जाने की व्यवस्था की जाए?"
रानी ने सम्मति दे दी। उसने रेविमय्या को बुलाकर तत्काल इस निश्चय से सूचित भी कर दिया। रेविमय्या ने वैसी ही व्यवस्था कर दी। लक्ष्मीदेवी यादवपुरी जाकर बस गयी। उसके गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा के लिए प्रतिदिन सुबह शाम नरसिंह भगवान् और लक्ष्मीनारायण मन्दिरों में विशेष पूजा-पाठ आदि की व्यवस्था की गयी। अनन्तर रानी लक्ष्मीदेवी की अनुमति पाकर रेविपय्या दोरसमुद्र के लिए रवाना हो गया। जाने से पहले यादवपुरी के आगे के सभी कार्यकलापों के बारे में समाचार तुरन्त दोरसमुद्र पहुँचाते रहने की व्यवस्था भी उसने कर रखी थी।
दोरसमुद्र जाते हुए रास्ते में यदुगिरि रुककर आचार्यजी के दर्शन किये, उनका आदेश जानकर फिर वहाँ से बेलुगोल पहुँचकर बाहुबली स्वामी के दर्शन किये और शान्तिनाथ मन्दिर के कार्य को प्रगति देखी। बाद में कवि बोकिमय्या शिल्पी गंगाचारी आदि परिचितों से मिलकर यहाँ की नींवस्थापना समारम्भ एवं महामस्तकाभिषेक का वृत्तान्त आदि सब सुना। उस समय कवि वोकिमय्या से जब सुना कि 'पट्टमहादेवीजी ने पता नहीं कितनी बार तुम्हारी याद की. रेविमय्या!' तो उसका दिल भावविह्वल हो उठा, आँखें सजल हो आयीं। उसने अपने मन में सोचा, 'मैं कितना भाग्यवान हूँ!'
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 219