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पर भी क्रोध पैदा हो जाता है, मानो पुजारी का सब दोष भगवान् ही का है। वह भगवान् तो सदा निर्विकल्प हो एक-सा ही रहता है। हम ही उस पर न जाने क्या-क्या गुण-दोष लगाते रहते हैं। 'अर्हन्, इस शंकुस्थापना की प्रेरणा द्वेष या असूया के कारण नहीं अनुकम्पा, दया ही इसकी प्रेरक शक्ति है। सबको सद्बुद्धि और शान्ति प्राप्त होइतना यदि हो तो मैं कृतार्थ हो जाऊँगी।' यह सब मन ही मन सोचती रहीं ।
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अगले दिन गंगाचार्य, बोकिमय्या - इन लोगों को बुलवा भेजा और मन्दिर का काम जल्दी समाप्त करवाने का आदेश देकर अपने परिवार के साथ दोरसमुद्र लौट गर्यो । दीपको और मिला था। उसने कहा, " अब मैं निश्चिन्त हूँ। उदार मन से तुमने इस सवतिगन्धवारण मन्दिर का शिलान्यास किया न? दुनिया कहीं भी जाए, मुझे कुछ भी चिन्ता नहीं । यदि तुम्हें कोई कष्ट हो तो मैं इसे सह नहीं सकती। उस दिन अगर तुम केलिगृह नहीं आतीं तो उस रानी के चपत लग ही जाती शायद । उस नामधारी बुड्ढे को गर्दनी देकर शायद निकाल दिया होता, मुझे इतना गुस्सा आया था। यों झूठा आरोप ! ऐसे ही लोगों के कारण जीवन का सारा सुख मिट्टी में मिल जाता है। रामायण के उस प्राचीन काल ही से हमारे ये लोग इस तरह के मिथ्या आरोप लगाने में मशहूर हैं। यह छोटी रानी उस धोबी के वंश में पैदा हुई होगी।"
"सबकी रक्षा करने या दण्ड देने के लिए जब भगवान् मौजूद हैं, तब हम ही क्यों अपने दिमाग को खराब करें। जो करेंगे सो भुगतेंगे।"
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'वे ही कहाँ भुगतेंगे। उस धोबी ने कुछ बक दिया, बेचारी सीताजी को वनवास भुगतना पड़ा।"
"वह धोबी की गलती नहीं। वनवास के लिए भेजनेवाले की गलती थी।" "तो क्या राम ने गलती की थी ?"
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'और नहीं तो गर्भिणी सीताजी के सुख के लिए ही उसे वन में छोड़ आने को कहा था ?" उन्होंने व्यंग्य में कहा।
"उन्होंने राजधर्म का पालन किया।"
" मानव-धर्म उससे भी बड़ा है। यह राजधर्म समय-समय पर बदलता रहता है। और फिर श्रीराम के युग के मूल्य अब कहाँ हैं ? वह मूल्य होते तो इन युद्धों की झंझट ही क्यों होती ! मानव केवल स्वार्थ से लबालब भरा है। स्वार्थ की बदहजमी का वमन जब तक न हो, तब तक ऐसा ही रहेगा। जाने दीजिए, दूसरों की बातों से हमें क्या मतलब?"
कम-से-कम आपका समाधान हुआ न ? सो भी मेरे लिए सन्तोष हैं। " 'अच्छा, तो अब हमें घर जाने दो। इतने लम्बे समय तक हम अपना घर छोड़कर कभी नहीं रहीं।" पद्मलदेवी ने कहा ।
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पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार: 217