________________
हुआ। रानी लक्ष्मीदेवी के साथ गया है।" शान्तलदेवी ने कहा ।
" तेजी वर्तुल का दर्शन तुम्हारे गुरु बोकिमय्या को भी हुआ था न ?" " उन्हें और मुझे दोनों को ही।"
" तुमने बताया ही नहीं ।"
"मुझसे किसी ने पूछा नहीं, मैंने कहा भी नहीं। "
44
'जैसे गुरु वैसी शिष्या । यदि वे भी जाएँ तो उन्हें भी साथ लेती जाओ ।" मारसिंगय्या ने कहा ।
शान्तलदेवी का मन बाल्यकाल के उन दिनों की ओर उड़ चला। एक-एक कर सभी घटनाएँ याद आती गयीं।' अर्हन्! सब ठीक हो गया। परन्तु धर्म के कारण परिवार में दरारें नहीं पड़नी चाहिए थीं। किस पुराने पाप के कारण यह सन्दिग्ध परिस्थिति पैदा हो गयी? मैंने कभी किसी की भी बुराई नहीं चाही। मन में भी ऐसी बात कभी नहीं सोची । अब मुझ पर यह मिथ्यारोप क्यों ? पट्टमहादेवी बनने की आकांक्षा से मैंने बल्लाल महाराज को थोड़ा-थोड़ा जहर खिलाकर मार डाला, कहते हैं । अब अन्य रानियों का गर्भ निरोध करवाया, कहते हैं। अन्यधर्मी रानी के गर्भस्थ शिशु की हत्या कराने में लगी हूँ, कहते हैं। जीवन का मूल्य ही श्रेष्ठ जीवन बिताना है, यहीं मानकर उसके अनुरूप अपने जीवन को मैंने ढाला। जब मुझ पर ही इस तरह के आरोप लगें तब साधारण लोगों की क्या दशा होगी ? ऐसे लोगों से उनकी रक्षा कैसे हो ? अन्नमद, अर्धमद, वैभवमद-ये मनुष्य को नीच बना देते हैं। इतना अनुभव पाने के बाद भी जो बात मुझे नहीं सूझी वह पद्मलदेवी को बहुत पहले सूझ गयी, तो यही समझना चाहिए कि मानव को समझने की शक्ति मुझमें कम है। इस तरह के मिध्यारोप करने से यह बेहतर होता कि वे अपनी अभिलाषा ही बताते और कहते कि हमारी अमुक इच्छा को पूरा कर दें, तब उनकी उस इच्छा को पूरा कर दिया जाता। अर्हन्! मेरे अन्तर का परिचय चाहे किसी को हो न हो, तुम तो जानते हो। इसलिए मेरी तुमसे यही विनती है कि गलत सोचनेवाले चित्त को ठीक कर, उन्हें शान्ति प्रदान करो। इससे अधिक मैं और कुछ नहीं चाहती।' शान्तलदेवी यही सोचती रही और प्रार्थना करती रहीं ।
अपने मुकाम पर पहुँचने के बाद उन्हें उस वृद्ध पुजारीजी की याद आयी । पिछली बार जब आयी थीं तभी मालूम हुआ था कि वह स्वर्गवासी हो चुके हैं। अगर वे होते तो पट्टमहादेवी से जिनस्तुति का गान कराये बिना न रहते ? आज गाया नहीं गया। कर्म के प्रति उनकी श्रद्धा, उनका वह स्पष्ट एवं खुला जीवन, वह पवित्र और निर्मल मनोभाव, इन सबने उन्हें निष्काम बनाकर परमधाम के सायुज्य में विलीन कर दिया था। अपने सन्तुष्ट, बाहुबली की पूजा में निरत, बाहुबली की भाँति ही निर्मल जीवन- - यापन करनेवाले पवित्रात्मा थे वे उनके पुत्र में भी उसी तरह का स्वभाव बाहुबली रूपित करें | अनेक प्रसंगों में पूजा करनेवाले के दोष के कारण पवित्र भगवान्
216 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार