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फूल चढ़ाओ तो वह आपकी खुशी, वह तो आपको अपनी करुणा भरी दृष्टि से देखेंगे, बस इतना ही। वहाँ एकत्र लोगों को ऐसा भान हो रहा था कि वे इन्द्रलोक में हैं, जन्म सार्थक हुआ। ऐसे मस्तकाभिषेक को देखने का पुण्य कितने लोगों को मिला होगा?
"इस भव्य दर्शन का सौभाग्य हमारी पट्टपहादेवी जी की कृपा से हमें प्राप्त हुआ, जीवन पवित्र हुआ।" कहते हुए लोगों ने अपनी सन्तुष्टि के साथ उनके प्रति कृतज्ञता दर्शायो।
माचिकव्वे ने कहा, "मेरे जीवन का यह परम पवित्र दिन है। यह महामस्तकाभिषेक अत्यन्त मनोहर और बहुत स्फूर्तिदायक है । मेरा स्वास्थ्य वैसे तो बहुत अच्छा नहीं है। इसके अलावा मेरी उम्र भी हो गयी है; परन्तु आज मुझे जो स्फूर्ति मिली है, उसने मेरी आयु को दस वर्ष और बढ़ा दिया है।"
मारसिंगय्या ने कहा, "मैं शिव-भक्त हूँ। जैन भक्तों को दर्शन करने को सुविधा मिले, इसलिए मैं दूर से देखता रहा। उस अभिषेक के समय ऐसा लगा मानो हिमवत्पवंत पर ध्यानमग्न शिवजी ही खड़े हों। यह विन्ध्यगिरि ही कैलास--सा और ग्रह बेलुगोल तीर्थ ही मानससरोवर-सा लगा। इस अभूतपूर्व दृश्य को मैं कभी नहीं भूल सकता, वेटी!"
"आप दोनों के पवित्र प्रेम का फल है मैं। मेरी इस सेवा ने आप दोनों को मनचाहा सन्तोष दिया, बाहुबली की यही कृपा मेरे लिए पर्याप्त है। यदि रेविमय्या यहाँ होता तो उसे क्षीरसागरशायी महाविष्णु ही शायद दिखाई पड़ते । निर्गुण ईश्वर को सगुण रूप में जब हम देखना चाहें, तब हमारी इच्छा के अनुरूप हो धारण कर वह प्रकट होता है। इसीलिए हम उसे अनन्तरूप कहते हैं। मैं आज अपने को धन्य समझती हूँ। इस शान्तिनाथ मन्दिर की नींव-स्थापना और यह महामस्तकाभिषेक, इन दोनों ने अब मेरे मन में एक कल्पना को जगा दिया है। अप्पाजी, शायद आपको याद होगा, हम पहली बार बलिपुर से राजधानी जाकर वहाँ से लौटते हुए शिवगंगा गये थे और वहाँ वृषभ के उन सींगों के बीच से जो देखा तो मुझे एक ज्योतिर्वलय दिखाई दिया था। आज यहाँ जब महामस्तकाभिषेक देख रही थी तो मुझे बाहुबली दिखे ही नहीं। वह तेजोवलय मात्र दिखाई पड़ा। मेरा मन वास्तव में यहाँ से उड़कर शिवगंगा के वृषभ के सींगों के बीच तल्लीन हो गया था। एक बार फिर वहाँ जाना चाहिए, पिताजो!" शान्तलदेवी ने कहा।
"सन्निधान के युद्ध भूमि से लौटने के बाद, दोनों साथ ही हो आइए, अम्माजी!" मारसिंगय्या ने कहा।
"रेविमय्या को भी साथ ले लेंगे, पिताजी । यहाँ उसका अभाव मुझे बहुत खटक रहा है। वास्तव में उसे जाने की इच्छा नहीं थी। पहले तो उसने इनकार ही कर दिया था, बाद में हमारी भलाई को ध्यान में रखकर इच्छा न होते हुए भी, वह जाने को तैयार
पट्टमहादेवी शान्ता : भाग चार :: 215