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सन्तान पर इसका प्रभाव पड़ेगा। ऐसा नहीं होने देना चाहिए। उसे मानसिक शान्ति मिलनी चाहिए। हमारा विश्वास है कि वहिंपुष्करिणी में वह शान्ति उसे मिल सकेगी। पटि रानी चाहे तो विजयी होकर महाराज के लौटने तक वहीं रह सकती है। शान्ति और मानसिक स्वास्थ्य दोनों वहाँ मिलेंगे।" आचार्य ने कहा।
'जैसी आपको आज्ञा।" तिरुवरंगदास ने कहा। "मेरे लड़का हो, यही आशीर्षे ।" रानी लक्ष्मीदेवी ने फिर से प्रार्थना की।
"तुम्हारा सुख-प्रसव हो, इतना ही आशीर्वाद दूंगा। शेष सब भगवान की इच्छा। यादवपुरी में हमें सर्वप्रथम आश्रय मिला नरसिंह भगवान् के मन्दिर में, जिसकी हम नित्य पूजा किया करते हैं। महाराज का प्रेम पुरस्कार भी उसी भगवान् की कृपा से मिला । रानी, तुम भी अपनी आशा-आकांक्षाओं को उस भगवान् से निवेदन करो। हम चाहे कहीं भी रहें, हमें सुख-प्रसव का समाचार भेज देना।" आचार्य ने कहा।
"तो क्या आप यदुगिरि छोड़कर जा रहे हैं ?"
"हाँ, हमें फिर से अपनी जन्म-भूमि की ओर जाने की इच्छा हो रही है। यहाँ चेलुवनारायण की प्रतिष्ठा के बाद चल देने का निश्चय है।"
"परन्तु वे चोलनरेश?" __ "अभी कुलोतुंग प्रथम का बेटा विक्रम चोलनरेश है । तलकाडु अर्थात् गंगवाड़ी को खोने के बाद कुलोत्तुंग बहुत समय तक जीवित नहीं रहा। वहाँ से जो भक्त लोग आये, वे बताते हैं कि बेटा बाप से ज्यादा उदार है।"
"तो पतलब यही हुआ कि वहाँ भी श्रीवैष्णव को यहाँ जैसी ही मान्यता मिल जाएगी।"
"जैसा हम सदा कहते आये हैं, जब तक धर्म में शक्ति है तब तक उसे दबा नहीं सकते। हमारे इस रेविमय्या को, जो श्रीवैष्णव नहीं है, बाहुबली ने किरीटकुण्डल, गदा पद्म-शंख-चक्र युक्त होकर दर्शन दिया। वह जैन भी नहीं, फिर भी उसे बाहुबली पर अटल विश्वास है। पास में खड़े रेविपय्या की ओर देखकर आचार्यजी ने कहा।
"जितना विश्वास बाहुबली पर है उतना ही विश्वास मुझे आचार्य-पाद पर भी है।" विनीत होकर रेविमय्या ने कहा।
"तो कल से तुम तिलक क्यों नहीं लगा लेते?" तिरुवरंगदास ने पूछा।
"तिलक से स्वप्रतिष्ठा मात्र गोचर होती है, यह पट्टमहादेवीजी कहती हैं। मुझे भी वह सही लगता है।'' रेविषय्या बोला।
'तो क्या उन्होंने तिलक लगाना छोड़ दिया है?" तिरुवरंगदास ने पूछा।
"ये सब बातें मेरी समझ में नहीं आती। धर्मदशी के दिमाग और एक नौकर के दिमाग में बहुत अन्तर होता है।"
210:: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार