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"तुम पट्टमहादेवी के प्रधान शिष्य हो न ? इसीलिए इस तर-तम भाव की जानकारी रखते हो ।" तिरुवरंगदास ने व्यंग्य किया । रेषिमय्या चुप रहा।
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'क्यों रेविमय्या, चुप हो गये ? तुमको मालूम नहीं कि अब मैं धर्मदर्शी नहीं ?" " इस बात को यहीं खतम कर दीजिए न ? नौकर से इसकी चर्चा क्यों ?" लक्ष्मीदेवी बीच में बोली ।
"नौकर-चाकर भी तो मनुष्य ही हैं, लक्ष्यी । अब तुम अपने बारे में क्या समझ रही हो? स्वयं को सीधे स्वर्ग से उत्तरी देवी मान रही हो ?" आचार्यजी ने जो बात कही उसमें उनकी खिन्नता और असन्तोष का भाव लक्षित हुआ।
'इनकी नजर में शायद पट्टमहादेवी सीधे स्वर्ग से उत्तरी होगी।' लक्ष्मीदेवी मन ही मन चाह रही थी कि कह दें। पता नहीं, क्यों बात को रोक रखने की कोशिश कर रही थी। इतने में, "इन लोगों के लिए पट्टमहादेवी... " इतना मुँह से निकल चुका
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था।
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'क्यों लक्ष्मी, क्यों रुक गयी ? आधा बोलना अच्छा नहीं।" आचार्यजी ने कहा । "कुछ कहना चाहती थी, मगर इतने में भूल ही गयी!" लक्ष्मीदेवी ने कहा । जिस बात को कहना नहीं चाहती, उसे क्यों कहलवाएँ, यह सोचकर आचार्यजी ने कहा, "अच्छी बात है। भगवान् की कृपा आप लोगों पर रहे।" फिर एम्बार से बोले, " रानी लक्ष्मीदेवी को प्रसाद ला दो।"
एम्बार ने बेंत की थाली में केले के पत्ते के दोने में प्रसाद ला दिया। प्रमाद लेकर प्रणाम कर लक्ष्मीदेवी ने कहा, "कल यादवपुरी जाएँगे, फिर वहाँ से वह्निपुष्करिणी जाएँगे। वहाँ हमारे ठहरने के लिए कुछ व्यवस्था करा लेनी होगी न ?"
"हाँ, अब पहले जैसे साधारण स्त्री तुम नहीं हो न ? रेविमय्या यह सारी व्यवस्था अच्छी तरह कर देगा।" आचार्यजी ने कहा ।
रानी अपने पिता के साथ अपने मुकाम की ओर चल दी। उसके चले जाने के बाद आचार्यजी ने पूछा, "एम्बार इस दास ने उस रानी के मन को पूरा बिगाड़ दिया हैं। इससे भलाई नहीं होने वाली, मुझे तो ऐसा ही बोध होता है। तुम्हारी क्या राय हैं ?" " दरिद्र एकदम धनी हो जाए तो क्या होगा ? राजमहल के जीवन में
कडु आपन
पैदा हो जाए तो बहुत बुरा होगा । "
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'एक बात सोचो, एम्बार। तुम पट्टमहादेवी को अच्छी तरह समझते हो । जब महाराज अनुपस्थित हैं, तब इस गर्भिणी को यो यात्रा करने के पीछे का कुछ मतलब होगा, हमें तो ऐसा ही लगता है। तुम्हें ?"
"चाहे कुछ भी हो, पट्टमहादेवी विचलित होनेवाली नहीं। यदि दूसरा कोई होता तो उस समय की परिस्थितियों में इस दास को देश निकाले का दण्ड मिलता और इस रानी को गृहबन्धन का दण्ड मिलना चाहिए था, यों आप आचार्य श्री ने ही तो कहा था।
घट्टमहदेवी शान्तला : भाग चार: 211