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जाता है तो हम समझते हैं भगवान् ने हमारी इच्छा पूरी कर दी।"
"अगर ऐसा है तो हमें उसकी आराधना क्यों करनी चाहिए?" लक्ष्मीदेवी ने मौलिक सवाल किया।
"स्वार्थ-साधना के लिए नहीं, मनःशान्ति और सन्तुष्टि के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।" आचार्यजी ने कुछ जार देकर कहा।
"तो क्या मेरा यह चाहना कि मेरी सन्तान आचार्यजी की सेवा के लिए ही सुरक्षित रहे, यह गलत है?" ।
"हमारी कहने-जैसी कोई सेवा नहीं। सब कुछ भगवान् की ही सेवा है। भगवान् की सेवा करने के लिए सबको समान अवकाश है। उसके लिए जोर-जबरदस्ती, उकसाना, अधिकार चलाना, आदि की जरूरत नहीं। हम जिस मत का प्रतिपादन करते हैं उसकी प्रेरक-शक्ति हमारी अन्तर्वाणी में होती है। वह यदि सशक्त हो तो स्वयं वृद्धि पाती है। अटल श्रद्धा-युक्त, निष्ठावान्, विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के अनुष्ठान करने से ही तत्त्व-प्रसार सत्त्वपूर्ण होता है। केवल प्रतीक बनाकर अपनी प्रतिष्ठा के लिए उपयोग करें तो धर्म का दुष्प्रचार होता है। धर्म के अनुष्ठान के लिए पूरी तरह से मन को उसी में तल्लीन कर देना चाहिए। वह वैयक्तिक है, सामूहिक नहीं। धर्म प्रसार सैनिक आदेश जैसा नहीं । सेना में आज्ञा सामूहिक होती है। वहाँ विरोध करने या तटस्थ होने का मौका ही नहीं। यहाँ यह स्वयंप्रेरित है। इसलिए तुम्हारे पिता ने तुम्हारे दिमाग में जिन विचारों को भरा है वह न तुम्हारे लिए अच्छा है, न तुम्हारी सन्तान के लिए।"
"मेरे पिता ने मुझे कुछ भी उपदेश नहीं दिया है। मेरी राय गलत हो तो मैं खुद ही सुधार लेती हूँ। इसके लिए उन पर आक्षेप करने की जरूरत नहीं। मुझे पहले से श्रीवैष्णवत्व में श्रद्धा और विश्वास है । मेरा जीवन आपके ही अनुग्रह से श्रेष्ठ बना है। मेरे पिता का अटल विश्वास, आपके द्वारा निरूपित मत पर है और वे उसी को श्रेष्ठ मानते हैं। उनकी यह उत्कर आकांक्षा है कि वह सारी दुनिया में फैले। वही उनकी निष्ठा का प्रतीक है। उनमें जैसी श्रद्धा और निष्ठा है, वहीं मुझमें हैं।"
"परन्तु वह अज्ञान से भरी है। तुम्हारी भावनाओं के लिए धर्म विशेष ही साधना का मार्ग नहीं । वह एक अन्ध-विश्वास होगा। ऐसे विश्वास और ऐसी श्रद्धा से, उपकार से अधिक अपकार ही होता है। इसलिए सनी बनकर तुम्हें सार्वजनिक हित के विचार को ही अढ़ावा देना चाहिए। तुम्हें धर्म-प्रचारक नहीं बनना है।"
"तो आचार्यजी का मत है कि अब जैसे सन्निधान आपके अनुयायी हैं, वैसे आगे आपके अनुयायी ही सिंहासनासीन हों, इसकी आवश्यकता नहीं ?"
"तुम्हारे सोचने विचारने का मार्ग ही गलत है। हम इधर आये केवल इसी इच्छा से कि अपने साक्षात्कृत सत्य की जानकारी लोगों को दें। हमारे धर्म को मानने
208 :: पट्टयहादेत्री शान्तला : भाग चार