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दो। रानीजी अन्तःपुर में जाएंगी।"
लक्ष्मीदेवी अन्तःपुर में चली गयी। कोई दूसरा चारा नहीं था। माचण दण्डनाश्य कुछ ही क्षणों में वहाँ लौट आये 1 पट्टमहादेवीजी के पास भी बुलावा गया। वे भी जल्दी ही आ गयी।
यात्रा सम्बन्धी बातें समाप्त हुई। दण्डनाथ चले गये। बाद को बिट्टिदेव ने रानी लक्ष्मीदेवी से हुई बातचीत का सारा विवरण पट्टमहादेवी को सुनाया 1 अन्त में कहा, "कोई उसके मन को बिगाड़ रहा है। हमने यादवपुरी में ही कुछ परिवर्तन देखा। उसके पिता का यादवपुरो भेज देना ही अच्छा है।"
शान्तलदेवी सपझती हुई बोली, "प्रथम गर्भ है। स्त्रियों को कई तरह की अभिलाषाएँ सन्तोष, भय आदि उत्पन्न होते हैं। यह सब मैं सँभाल लेंगी। सन्निधान निश्चिन्त होकर युद्ध के लिए प्रस्थान करें।"
निश्चय के अनुसार यात्रा हुई। पोय्सल सेना सागर की तरह उमड़ती राजधानी 4 तैयारी के साथ दो पर भावा बोलने के लिए चल पड़ी।
एक तरफ युद्ध चल ही रहा था तो दूसरी तरफ शस्त्रास्त्रों का तैयारी का कार्य भी अबाध गति से चल रहा था। राज्याभिषेक के वक्त अपने अधिकार के अन्तर्गत जितना राज्य रहा और आज वह जितना विस्तृत हो गया है, दोनों में जमीन-आसमान का फार्क था। पड़ोसी राजा केवल हारे ही नहीं, उनके दिलों में असूया भी होने लगी, इतना विस्तृत हो गया था यह पोय्सल साम्राज्य । केवल विस्तृत मात्र नहीं हुआ था, समृद्ध भी बन गया था। ऐसी दशा में कब कौन किस समय हमला कर बैठेगा, यह कहा नहीं जा सकता था। खासकर उत्तर की ओर से हमेशा ही बिट्टिदेव सशंक रहे, इसलिए रसद का संग्रह एवं शस्त्रास्त्र निर्माण आदि तैयारियां चल रही थीं। राज्य की आर्थिक स्थिति को ठीक बनाये रखने के लिए वित्तचिव मादिराज ने पट्टमहादेवी में सलाह-मशविरा करके अनेक तरह के कर लगाये थे। इससे राज्य के खजाने में पर्याप्त धन जमा हो गया था। इसके पहले कुछ अन्य कर भी बढ़ाये जा चुके थे। पुराने और ये नये कर सभी सम्मिलित नये प्रदेशों पर भी लागू थे। इस वजह से राज्य में धन की कमी नहीं रह गयी थी। समयोचित रीति से व्यय करते हुए बड़ी किफायत से काम लिया गया था और भविष्य को भी ध्यान में रखकर शस्त्रास्त्र-निर्माण में बढ़ोतरी की गयी थी।
मंचियरस और अनन्तपाल ने अच्छी नस्ल के कुछ नये घोड़ों को खरीदकर अश्वदल में सम्मिलित किया था।
हानुगल. जो अपने अधीन हुआ था, फिर कदम्बों के कब्जे में आ गया था और उनकी सेना के अधिकारो मसणय्या की देखरेख में था। पोयसल सेना ने तुंगभद्रा नदी को पार कर वरदा नदी के परले किनारे पर अपना डेरा जमाया, और वहीं से हातुंगल
188 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार