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"मुझे अपनी चिन्ता नहीं।'
"आपको अपनी चिन्ता न हो, कम-से-कम अपनी सन्तान की चिन्ता तो होनी ही चाहिए।'
"मुझे समूचे राज्य की चिन्ता है। मेरी सन्तान भी राज्य में ही शामिल है न?"
"ठीक । इस तरह सोचें तो मैं क्या कह सकती हूँ? आपकी बार युद्ध क्षेत्र से लौटने के बाद, मुझको ही सन्निधान से कहना पड़ेगा।"
"कहिए । इन सबके बारे में उनकी भी निश्चित राय है। यह राजमहल प्रतिस्पर्धियों का अड्डा न बने, यही हम दोनों की अभिलाषा है। हम चाहते हैं कि यहाँ समरसता और त्याग- बुद्धि पनपे।"
"यह तो आदर्श की ज्यादती हुई!"
"आदर्श है, सच । मगर वह ज्यादती नहीं। ज्यादती हो तो वह आदर्श नहीं कहलाता।"
इतने में सेविका अन्दर आयी। प्रणाम किया। "क्या है?"
"मायण हेगड़े आये हैं। कहते हैं कि मिलना जरूरी है। कहते हैं कि युद्ध शिविर से जमा भी है।"
"ठीक, उन्हें मन्त्रणागार में ठहराओ, में आती हूँ।'' शान्तलदेवी ने कहा । सेविका चली गयी।
"मुझे माफ करें। आपको कोई कष्ट न हो तो अभी राजमहल के बगीचे को देख आइए।" कहकर शान्तलदेवी चली गयीं।
पद्मलदेवी और उनकी बहनें बगीचे की ओर चल दी। बगीचे के द्वार पर एक दरबान और दो नौकरानियाँ थीं। इन बड़ी रानियों के साथ चट्टलदेवी और दो अंगरक्षक आये थे।
द्वार पर नौकरानियों को देखकर चट्टलदेवी ने कहा, "लगता है कि छोटी रानीजी आयी हैं।" इनको देखते ही नौकरानियों में से एक वहाँ से उद्यान के अन्दर गयी। चट्टलदेवी ने साथ आये अंगरक्षकों में से एक के कान में कुछ कहा। उसने जल्दीजल्दी उस नौकरानी का अनुसरण किया।
इधर द्वार पर के दरबान से पद्मलदेवी ने पूछा, "कौन आये हैं ?'' "छोटी रानीजी और उनके पिता।" उसने कहा। पालदेवी ने पूछ ही लिया, "उद्यान के अन्दर जाने में कोई बाधा तो नहीं है?"
अंगरक्षक ने चट्टलदेवी की ओर देखा। राजमहल में रेविमय्या, मायण, चट्टलदेवी, चाविमय्या-इन लोगों के लिए चाहे जहाँ जाने की अनुमति है, कहीं कोई रोक-थाम नहीं। उसे लगा कि जब वह स्वयं साथ आयी है, तो पट्टमहादेवी जी की अनुमति से
पट्टपहादेवी शान्तला : भाग चार :: 19]