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"मैंने तम जैसी मूर्ख स्त्री कहीं नहीं देखी। सामने इतना सब हो रहा है, फिर भी नाम पदपा देवी का ही सपना रेम्स रही की या टम्सने राको भिर पा कि वर्गीकरण का तस मल दिया है?'
"वह सब कुछ नहीं। मैं भी उनसे डरती नहीं। मैंने सन्निधान से जैसी यातचीत की, उसे सुनते तो आप यों न कहते।"
"क्या बातचीत की?" उसने विस्तार से सुना दी।
"तो, अब तुम सच ही जाग्रत हो गयी हो, बेटी ! सुनकर खुशी हुई। तुम्हारी और तुम्हारे गर्भस्थ शिशु की अभिवृद्धि पर मैं अवलम्बित हूँ। वहीं मेरा सहारा है। तुम्हें और तुम्हारी सन्तान को छोड़ मेरे लिए और कौन है ? इसीलिए मैंने अपने धर्मदर्शित्व को भी त्याग दिया।"
"मेरे पिता होकर धर्मदर्शी का काम संभालें, यह मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। परन्तु आप ने ही चाहा था। कहा था कि अधिकार हो तो उसका प्रभाव ही और होता है। अनुभवहीन मैंने समझा था कि शायद ऐसा हो। परन्तु अब मैं सचमुच सन्तुष्ट हूँ; क्योंकि मेरे पिता अब दूसरों के अधीन नहीं हैं।"
__ "इतना ही नहीं बेटी, कल नारायण की कृपा से तुम्हारे लड़का हो जाए, तब बताऊँगा कि इस तिरुवरंगदास की क्या ताकत है।"
"यह कैसे कह सकते हैं कि लड़का ही होगा।"
"सच है। वह तो भगवान् की छ। है। परन्तु एक बात में तुम्हें बहुत सचेत रहना होगा!"
"किस बात में?" "तुम्हारे गर्भस्थ शिश के बारे में।" "क्यों? उसे क्या हो सकता है ?''
"देखो बेटी ! तुम वास्तव में भोली लड़की हो। मैं एक प्रश्न पूर्छ, उसका उत्तर दोगी?"
"जानती हूँगी तो जरूर दूंगी।" "महाराज की कितनी रानियाँ हैं?" "चार।" "उनमें कितनों के बच्चे हुए?!" "एक के।" "बाकी रानियों के बच्चे क्यों नहीं हुए?" "शायद उनका भाग्य ही ऐसा होगा।" 'यही सब कौशल हैं। पट्टमहादेवी नहीं चाहती कि अपने बच्चों के साथ हिस्सा
194 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार