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की ओर एक खिड़की है। अगर वह खुली रही तो बहुत कुछ सुनाई पड़ सकता है। दक्षिण पूर्व के कोने में एक छोटा कमरा है । जो सञ्जागार है वह उसमें नया बना है। वहाँ रहेंगे तो सुनना असम्भव नहीं।"
"अच्छा, चलो देखेंगे।"
"तुम और चट्टला हो आओ। मैं और बोप्पी यहीं फुलवाड़ी में बैठेगी।" चामलदेवी ने कहा।
"यह भी ठीक है।" कहकर पद्मलदेवी चट्टला के साथ केलिगृह की ओर गयीं। चामलदेवी और बोप्पिदेवी फुलवाड़ी में जाकर बैठ गयीं और आपस में बातें करने लगीं। "इतनी उम्र होने पर भी इस पद्मी को अकल ही नहीं आयी। यह सब तहकीकात क्यों? इससे क्या होगा? हमने तो जीवन में कुछ नहीं पाया!" चामलदेवी ने कहा। ___ "उसे यहीं तो दुःख हैं। उसकी अब यही अभिलाषा है कि पट्टमहादेवी की दशा हमारी जैसी न हो। कम-से-कम उन्हें आनन्द से रहते हम देख सकें। हमारी माता के स्वार्थ से हमारी जिन्दगी बरबाद हुई। कम-से-कम अब भी कुछ भलाई करें तो अगला जन्म सुधर सकता है । यह उसकी इच्छा है। काश! पट्टमहादेवी पर अब जो उसका प्रेम है, वह तब होता तो बात ही और होती।" बोप्पिदेवी ने अपनी समझ से विवरण दिसा कोटी में इस बहु न नामलोवीर मदद पायी थी। परन्तु जब बोष्यिदेवी इन दोनों से पहले गर्भवती हुई, तो बात उठी थी कि किसके गर्भ-सम्भूत को सिंहासन मिले। तब पद्मला बोप्पिदेवी पर आग-बबूला हो उठी थी।वही पद्यलदेवी अब बोप्पिदेवी से ही अधिक परामर्श लिया करती थी। पिता को मृत्यु के बाद चामला एक तरह से निर्लिप्त जीवन व्यतीत करती थी, कमल के पत्ते पर बूंद की तरह । इसलिए बोप्पिदेवी ने जो बात कही, वह उसे नयी मालूम हुई। साथ ही एक तरह से समाधान भी मिला। यह जानकर कि उसे पट्टमहादेवी पर सचमुच आत्मीयतापूर्ण प्रेमभाव है, उसे. अन्दर ही अन्दर सन्तोष भी हुआ, क्योंकि अब तक इन दस-बारह वर्षों में कभी अपनी दीदी से पट्टमहादेवी के बारे में एक भी बात नहीं की थी। उसने पिछली घटनाओं की पृष्ठभूमि में यही निर्णय कर लिया था कि सोये कुते को जगाकर उसे भौंकने देने से बेहतर है कि उसे वैसा ही पड़े रहने दें। अब बोप्पिदेवी ने अपनी दीदी के विषय में कुछ दूसरा ही चित्र सँजो रखा था। इतनी निकट होते हुए भी कितनी दूर हूँ अपनी दीदी से, यही उसे लग रहा था। फिर भी यह छिपकर सुनने का काम न करती तो अच्छा था, यह उसका हृदय कह रहा था।
इसके बाद वे दोनों अपनी दीदी के आगमन की प्रतीक्षा में बैठी रहीं।
उधर, चट्टलदेवी के साथ पद्यलदेवी केलिग्रह के पिछले भाग में पहुँची। अन्दर हो रही बातचीत सुनने के लिए उन्हें बहुत कष्ट उठाना नहीं पड़ा, क्योंकि वे धीमे स्वर में नहीं बोल रहे थे।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 193