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पर हमला करके दुश्मन को मार भगाने की योजना बनायी। अबकी बार मायण- चट्टला नहीं आये थे। पट्टमहादेवीजी के अनुरोध पर महाराज ने उन्हें उनके ही साथ रख छोड़ा था। युद्ध - शिविर में काफी चहल-पहल थी, उत्साह भरा था। हमला करने के लिए महाराज की आज्ञा की प्रतीक्षा में सेना तैयार खड़ी थी।
इधर युगल - शिव- पन्दिरों का निर्माण कार्य जोरों से चल रहा था। विवाह के लिए पद्मलदेवी, चामलदेवी, बोप्पिदेवी आयी थीं, वे राजधानी में ही रहीं।
और फिर कुछ समय से शान्तलदेवी अधिकतर दोरसमुद्र में ही रहा करती थीं । फलस्वरूप राजमहल की फुलवाड़ियाँ और बाग-बगीचों की शोभा नयी हो गयी थी । उनके बीच का केलिगृह अधिक सुन्दर बनाया गया था। परन्तु उस केलिगृह का उपयोग शान्तलदेवी के लिए अलभ्य ही रहा। लेकिन इस कारण से उसके प्रति उदासीनता भी नहीं रही।
एक दिन इधर-उधर की बातों के सिलसिले में पद्मलदेवी को वे सब पुरानी बातें याद आर्थी और इसी क्रम में उस केलिगृह की एक पुरानी घटना भी याद हो आयी। उन्होंने कहा, "उसे याद करती हूँ तो सारे शरीर में रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इतनी बार आयी, कभी वहाँ जाने की इच्छा ही नहीं होती।"
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'अब उसमें बहुत परिवर्तन किया जा चुका है। यह परिवर्तन उद्यान में ही नहीं, केलिगृह में भी हुआ है। आप एक बार देखें। जब परेशान होती हूँ तब मैं वहीं जाती हूँ और उद्यान का चक्कर लगा आती हूँ। ईर्ष्या-द्वेष से मुक्त निसर्ग में परिशुद्ध हवा का सेवन कर मानसिक शान्ति पा लेती हूँ।" शान्तलदेवी ने कहा ।
" आपको भी परेशानी होती है ! सुबह जब जागती हैं तबसे सोने तक किसीन-किसी काम में लगी ही रहती हैं। हैरान-परेशान होने के लिए आपको समय ही कहाँ मिलता है ?"
"लोगों के बीच में जीना हो तो इन सबसे दूर नहीं रह सकते। मन में तरहतरह के आदर्शों को स्थान देकर, उनके विरुद्ध कार्य होते जब देखते हैं, तब परेशानी होती ही हैं। खासकर जब लोगों की मूर्खता को देखती हूँ तो बहुत परेशान होती हूँ।" " उन लोगों की मूर्खता से आप परेशान क्यों हों ? मूर्खता उनकी बदकिस्मती है। इसके लिए परेशानी क्यों ?"
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"ऐसा सोचूँ तो मैं भी साधारण स्त्री के समान ही हो जाऊँगी।" "ऐसा विचार कर दुनिया भर के लोगों के दुष्कार्य से परेशान होते रहें तो इसका
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 189