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"चौथो पर जोर देकर कह रहे हैं। तो मैं निकृष्ट हूँ?"
"क्यों ऐसी अण्ट-सण्ट बातों से अपने दिमाग को खराब करती हो? अब तुमको हमेशा खुश रहना चाहिए। माँ बननेवाली स्त्री को सदा हँसमुख रहना चाहिए।"
"हँसमुख न रखकर केवल बातों में कहें कि हँसमुख रहो तो कैसे रहा जा सकेगा? सन्निधान को इतनी भी समझ नहीं कि माँ बननेवाली पत्नी के साथ रहकर उसे प्रसन्न रखना चाहिए।"
"राजा इस विषय में स्वतन्त्र नहीं। उसे राज्य का अस्तित्व सबसे प्रधान है।"
"क्या मैं नहीं जानती यह ? एक के साथ एक तरह का व्यवहार, दूसरे से दूसरे ढंग का बरताव?1
"इसके माने?"
"मान लीजिए, यदि पमहादेवी गर्भवती होती और ऐसा युद्ध छिड़ता, और वे कहतों मत जाइए, तो सन्निधान जाते ? उनकी बात सन्निधान के लिए वेदवाक्य है।" बात कुछ चुभती-सी थी।
बिट्टिदेव ने कुछ असन्तुष्टि से रानी की ओर देखा। पर कहा कुछ नहीं। "मैं नहीं जानती? इसीलिए यह मौन है।"
"रानी, बहुत आजादी नहीं लेनी चाहिए। मन्त्रणा-सभा का निर्णय सबके लिए मान्य होता है। इसमें अन्तःपुर का दमाः जोगा चहा ।"
"तो मतलब यही हुआ कि सन्निधान की राय में उधर का पलड़ा ही भारी है। मन्त्रालोचन सभा में पट्टमहादेवी नहीं थीं? रानी बम्मलदेवी नहीं थी?"
"धीं, वे पहले से ही सलाह देती रही हैं । तुम भी उन जैसी युद्ध-निपुणता प्राप्त करो तो तुम भी सलाह देनेवाली बन सकोगी।"
"कल की बात आज क्यों? मेरी अबकी अभिलाषा...?" "जो पूरी नहीं की जा सकती, ऐसी अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए।" "तो मेरी इस निराशा का प्रभाव आपकी इस सन्तान पर पड़े, यह ठीक है?"
"प्रभाव न पड़े, इस ओर ध्यान देना तुम्हास कर्तव्य है। बेकार इस विषय को लेकर बात बढ़ाने से कोई लाभ नहीं। इन सभी चिन्ताओं को छोड़ कर, पट्टमहादेवी को प्रेम-पूर्ण देखरेख में रहो। योग्य पत्र की माँ बनो।"
"तो उसे सिंहासन तो नहीं मिलेगा न?"
"लक्ष्मी, तुम अनावश्यक बातों के फेर में पड़ी हो। वह सब मेरे-तेरे वश में नहीं है। इस बारे में हमें सोचना भी नहीं चाहिए। हमने कभी यह आशा नहीं की थी हम महाराज बनेंगे। देखो, ऐसी बे-सिर-पैर की बातों से अपने दिमाग को खरान मत करो। इस बात को यहीं समाप्त कर दो।" कहकर उन्होंने घण्टी बजा दी। परदा उठा कर नौकर अन्दर आया। बिट्टिदेव ने उससे कहा, "माचण दण्डनाथ को अन्दर भेज
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 187