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है। रानी राजलदेवी और बम्मलदेवी दोनों इस बात से खिन्न हुई कि यह भाग्य उनका न रहा। संयमी होने के कारण अपनी इस मानसिक खिन्नता को उन्होंने प्रकट नहीं होने दिया। फिर भी इसे शान्तलदेवी ने पहचान लिया। यह बात उन्होंने महाराज के कानों में धीरे से डाल दी।
फलस्वरूप यह निर्णीत हुआ कि रानी लक्ष्मीदेवी पट्टमहादेवी के साथ राजधानी में रहें और रानी बम्मलदेवी तथा राजलदेवी के साथ आसन्दी में महाराज कुछ समय बिताएँ, परन्तु रानी लक्ष्मीदेवी के मनोरथ को पूर्ण करने के विचार से महाराज की यात्रा एक मास तक स्थगित रही आयी। लक्ष्मीदेवी ने आजिजी से कहा, "प्रथम गर्भ का सीमन्त-संस्कार सम्पन्न हो जाने के बाद सन्निधान आसन्दी जा सकेंगे।"
तिरुवरंगदास ने कहा, "यादवपुरी ही में प्रसव हो तो अच्छा। नामकरण समारोह में आचार्यजी भी आ सकेंगे।" वैसे उसके अन्तर में आचार्यजी की उपस्थिति का विचार नहीं था। उसका विचार था कि यदि वहाँ रहेगी तो उसके गर्भस्थ शिशु की किसी से कोई खतरा न रहेगा। मगर वह यह बात कह नहीं सकता था, इसलिए यह बहाना किया था। फिर भी वह सफल नहीं हुआ। रानी लक्ष्मीदेवी को कहाँ रहना चाहिए, यह बात राजमहल सम्पन्धित हैं । आचार्य जो जी थुलवाने के लिए राजनहीं सक्षम है, कहकर उसे निराश कर दिया गया। वह मन-ही-मन कहने लगा, "इस राज्य में मेरी सभी इच्छाएँ रोकी जा रही हैं, मेरी बेटी का प्रसव अपनी इच्छा के अनुसार अपने वांछित स्थान में हो, यह भी नहीं हो सकता। इस सबका कारण वहीं पट्टमहादेवी है। वही सभी बातों में रोड़ा अटकाती रही है।" उसे यह स्पष्ट आभास था कि वह कितना निःसहाय है । इसलिए उसने एक दूसरी ही योजना बनानी शुरू की। उसने कहा, "मुझे अपनी बेटी के साथ रहने की सुविधा प्रदान करें।" बिट्टिदेव ने कहा, "राजमहल की स्वीकृति इसके लिए है ही। आप यादवपुरी के धर्मदर्शी का पद छोड़ सकेंगे?" इस बार तिरुवरंगदास उसके लिए तैयार हो गया। वैसी ही व्यवस्था हुई । धर्मदर्शी का पद त्यागकर वह अपनी बेटी का पिता मात्र रह गया।
परन्तु अपनी इच्छा के अनुसार सभी कार्य सदा नहीं हुआ करते । इस निर्णय के बाद दो-चार दिनों में ही खबर आयी कि उत्तर से कदम्बों ने हमला कर दिया है और हामुंगल को अपने कब्जे में कर लिया है। तुरन्त मन्त्रालोचना के लिए सभा बैठी। विचार-विमर्श के बाद निर्णय यों हुआ, ''इस बार इन कदम्बों को जड़ से उखाड़ देना होगा। यह सब उन चालुक्यों के उकसाने का ही परिणाम है। इसलिए अबकी बार केवल विजय मात्र से सन्तुष्ट न होकर उनका पीछा करके उनका नामोनिशान ही मिटा देना होगा। चालुक्यों के प्रान्त में अपने प्रभुत्व को स्थापित करना होगा। इसलिए इस बार आक्रमण के समय महादण्डनायक का कार्यभार हम खुद संभालेंगे।" र्यो महाराज ने कहा। "गंगराज काफी वृद्ध हो गये हैं और गत दो युद्धों से काफी थक चुके हैं।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 185