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इच्छाएँ पूरी करें। "
लक्ष्मीदेवी ने, जो पलंग पर शान्तलदेवी की बगल में बैठी थी, वहाँ से उतरकर शान्तलदेवी के पैर छुए और कहा, "मुझे यही आशीर्वाद दें कि मेरे पुत्र हो ।"
"वह तो सभी स्त्रियों की अभिलाषा होती हैं। भगवान् जिननाथ अनुग्रह करेंगे।" "मैं साधारण पुत्र को जन्म देना नहीं चाहती। इस राजघराने के योग्य मेरा पुत्र हो, ऐसी मेरी अभिलाषा है।"
" किस तरह तुम सन्निधान को सन्तुष्ट करोगी, उस पर यह निर्भर करता है। इसके साथ तुम्हें प्रभु से एक प्रार्थना करनी होगी, यह कि सन्निधान की सन्तानें परस्पर भ्रातृभाव से रहें, प्रतिस्पर्धियों की तरह नहीं समझी ?"
बात को सुनकर लक्ष्मीदेवी हँस पड़ी।
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'क्यों? क्या हुआ ? इसमें हँसने की कौन-सी बात थी ?"
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'आप इतनी अनुभवी हैं, फिर भी यह बात आपके मुँह से क्यों निकली ? मेरा पुत्र हो तो उसे क्या सिंहासन मिलेगा ? प्रतिस्पर्धी क्यों बने ? आप पट्टमहादेवी हैं। आपके गर्भ से उत्पन्न बड़े पुत्र के होते हुए, मेरा पुत्र उनके साथ अनुज बनकर ही रहेगा न? मुझमें इतनी लौकिक प्रज्ञा नहीं, ऐसा समझती हैं ?"
"मैंने यह नहीं कहा कि तुममें लौकिक प्रज्ञा नहीं । वास्तव में मेरी कोई अभिलाषा ही नहीं है। सन्निधान माध्यम बने कि मेरा पाणिग्रहण किया, परिस्थितिवश उन्हें सिंहासन पर बैठने का यह योग मिला, और मैं पट्टमहादेवी बनी। सन्निधान का और मेरा यह योग हमारी सन्तान का भी हो, ऐसा विचार करना गलत न होगा। फिर भी यह सब उनके जन्म के मुहूर्त के अनुसार ही होगा। भाग्य में जो लिखा है उसे कोई मिटा नहीं सकता। तुम्हें चालुक्यों का किस्सा मालूम है ?"
"क्या, विक्रमादित्य की कथा ?"
" उनसे पूर्व की । पहले उनकी राजधानी वातापि थी । वातापि के मूल चालुक्यों के घराने में कीर्तिवर्मा एक राजा थे। उनके स्वर्गवास के समय उनका पुत्र छोटी आयु का था । इसलिए राजा कीर्तिवर्मा के बड़े बेटे पुलिकेशी के नाम पर कीर्तिवर्मा के भाई मंगलेश राजकाज संभालते थे। भाई के प्रति उन्हें अपार श्रद्धा थी। फिर भी अधिकार के मद में उनका मन भी कलुषित हो गया। अधिकारमद ही बुरा है। उन्होंने अपने हो पुत्र को सिंहासन पर बैठाने की योजना बना ली। तब सत्याश्रय सत्यव्रत पुलिकेशी ने अपने समर्थकों को इकट्ठा किया और अपने चाचा से लड़कर राजसिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया। इसलिए मैंने यह बात कही। दूसरों के अनुभव से भी हमें पाठ सीखना चाहिए। इतनी दूर क्यों जाएँ ? सन्निधान के दादा विनयादित्य महाराज के तो अकेले पुत्र थे प्रभुजी । उनके सिंहासनारूढ़ होने में भी बाधा डालने वाले अनेक रहे। इसलिए कहती हूँ कि राजमहल की एकता पोय्सल राज्य की एकता के लिए अत्यन्त
पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार : 181
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