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आपको कष्ट दिया, क्षमा करें।"
"वास्तव में यहाँ आने के बाद, मैंने आचार्यजी से कभी-कभी दो-चार क्षण बातें जरूर की है। अभी तक आपकी तरह इतनी सहानुभूति और आत्मीयता से किसी ते मासे जारील नहीं कर मुझंकाई कमां महसूस नहीं हुई फिर भी आपकं साथ जो समय मैंने बिताया उससे मुझे उतना ही आनन्द हुआ जितना बन्धुओं के मिलने से होता है। अनुमति हो तो अब मैं चलूँ? कहकर शहजादी ने उठकर प्रणाम किया और विदा ली।
शान्तलदेवो ने बाद में सारी बात महाराज को एनायो।
"नारायण की लीला है ! किसे क्या बना दे, सो वही जाने। अच्छा, यह बात रहने दें। अब रानी लक्ष्मीदेवी का स्वास्थ्य सुधर गया है। इसलिए क्यों न हम दोरसमुद्र लौट चलें7"
"मैं लौट जाऊँगी। सन्निधान कुछ दिन और यादवपुरी में रहें तो ठीक होगा।" "हम आये थे बीमारी की बात सुनकर।"
"उसकी यह छोटी-सी उमर और उसका मन, दोनों को समझकर आपका यहाँ रहना उचित है । कल यहाँ के मन्दिर-निर्माण का कार्य देख-समझकर यदि कोई सलाह देनी हो तो शिल्पियों को समझाकर, परसों राजधानी लौर जाऊँगी। सन्निधान रानी लक्ष्मीदेवी के साथ यादवपुरी पधारें।" शान्तलदेवी ने जैसे निर्णय ही दे दिया।
बिट्टिदेव ने कुछ नहीं कहा। शान्तलदेवी के इस निर्णय में थोड़ा-सा परिवर्तन हुआ अवश्य । रानी लक्ष्मीदेवी ने जिद को कि पट्टमहादेवीजी यादवपुरी आएँ और वहाँ से फिर राजधानी जाएँ। इस वजह से उन्हें भी महाराज के साथ यादवपुरी जाना पड़ा।
यादवपुरी में पट्टमहादेवी एक सप्ताह रहीं। उस दौरान उनके प्रति जो आस्थागौरव रानी लक्ष्मीदेवी ने दिखाया उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। वास्तव में शान्तलदेवी बहुत सन्तुष्ट हुईं। जब तक वे रहीं, लक्ष्मीदेवी को अनेक विषयों की जानकारी हासिल हुई। अपने से और अपने पिता से कितना भयंकर आघात हो जाता, यह बात याद करके आगे से इस तरह का कार्य न हो, इसके लिए किस तरह आचरण करना चाहिए, सब उसकी समझ में आ गया। कभी-कभी बातचीत करके वक्त उसने अपने पिता की ज्यादतियों की टीका भी की। शान्तलदेवी ने शुद्ध मन से अनेक उपयुक्त सलाह भी दीं। उनमें मुख्य बातें यह भी उन्होंने बतायीं, "यादवपुरी हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। मेरे जीवन ने परिपूर्णता इसी जगह पाया। राजलदेवी ने भी यह राय व्यक्त की है। आचार्यजी ने राजमहल के दीप को यहीं उजागर किया था। ऐसे ही तुम्हारा जीवन भी यहाँ परिपूर्णता को प्राप्त करे। सन्निधान की देख-रेख फूल की तरह करना । व्यक्तियों के बारे में, धर्म और कला के बारे में तथा आचार्यजी के विषय में उनकी निश्चित विचारधारा है। ऐसे प्रसंगों में उन्हें छेड़ना नहीं। जिननाथ तुम्हारी
180:: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार