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इसलिए मैं इसका खुलासा कर ही नहीं सकती। मेरे विचार मेरे अपने हैं।"
"आपके पिताजी बादशाह हैं। आपको दूसरों के देवता से दूर रखने के लिए ही इस रामप्रिय को आचार्य के हाथों भेज दिया, यही सुना। तब भी आप इधर चलो आर्यां? आपके लिए कोई रोक-टोक नहीं थी?"
"कह नहीं सकती कि रोक-टोक नहीं थी। मुझे तो अन्त:पुर से बाहर निकलने का मौका ही नहीं मिलता था। सब तरफ पहरेदार रहा करते थे।"
"तो आयीं कैसे? सबकी आँखों से बचकर चली आर्थी।"
"नहीं, एक दिन मैं सो रही थी तो रामप्रिय ने आकर मुझे जगाया। सचमुच, मुझे आश्चर्य हुआ। मेरा रामप्रिय निर्जीव प्रतिमा नहीं, वह सजीव सुन्दर व्यक्ति है, ऐग लगा। जगी तो मैं उस देना हो रही मैंने सन्दर्य को उसे समर्पित कर दिया। मैंने पूछा, 'मुझे छोड़कर क्यों चले गये?' तो उसने कहा, 'मैं भी जीऊँ और तुपको भी जिलाऊँ इसलिए चला गया।' मैंने कहा, 'यहाँ मेरा जीवन असह्य हो गया है।' उसने कहा. 'जाओगी तो ले जाऊँगा।' तुरन्त उसके लिए चल पड़ी। यहाँ आयी। परन्तु मेरा रामप्रिय अदृश्य हो गया। सब स्वप्न-सा लग रहा है। दिल्ली के अन्तःपुर से कैसे और किस रास्ते से रामप्रिय मुझे ले आया सो याद तक नहीं। चलते-चलते पैर घिस गये। सच. कई रातें इधर-उधर मण्डपों में सोकर बितायी है। यह सब याद हो आता है तो मुझे स्वयं आश्चर्य होता है। मैं कहाँ और यह यदुगिरि कहाँ! मेरी बात, मेरा अनुभव, इनपर मुझे विश्वास ही नहीं होता तब दूसरे कैसे विश्वास करेंगे? इसलिए मैं कुछ भी नहीं कहतो। मेरा रामप्रिय मुझे यहाँ बुला लाया । उसने कहा, 'अभी यहीं रहो, मैं ले चलूँगा।' उसका यह कथन ही मेरा सहारा है।"
"तो आपका यह दृढ़ विश्वास है कि स्वामी रामप्रिय सजीव होकर आपको साथ ले जाएँगे?"
"मुझे विश्वास है, यहाँ तक मुझे ले आनेवाला रामप्रिय मुझे धोखा नहीं देगा।"
"मगर आपके यहाँ आने की बात बादशाह को मालूम हो जाए और बादशाह यहाँ सेना लेकर आपको ले जाने के लिए आ जाएँ, तब?"
"इस राज्य पर हमला हो जाने का डर है?''
"यह राज्य हमले से नहीं डरता। राजा, रानी और जनता सब मिलकर सामना करेंगे। फिर भी एक नैतिक प्रश्न उठता है। आप बादशाह की अविवाहिता बेटी हैं। आपको समझाने के लिए कहें तो हम इनकार नहीं कर सकते, इसलिए कहा।"
"मेरे मन में कोई ऐसी बात उठी ही नहीं। आप ही क्यों व्यर्थ की कल्पना करती हैं? सब-कुछ रामप्रिंय की इच्छा के अनुसार होगा।"
"आपका यह अटल विश्वास ही आपका रक्षक है। सभी मत-धर्मों के लिए यही अटल विश्वास मूलाधार है। मैं यहाँ से बेलापुरी लौट जाऊँगी। आचार्यजी की
178 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार