________________
आवश्यक है। भविष्य सुन्दर बने, वह कलुषित न हो, यही मेरी अभिलाषा है। इसमें हँसने का कोई कारण नहीं। कुछ ऐसी भी बेल होती हैं जो सहारा देनेवाले वृक्षों के लिए ही कण्टक बन जाती हैं। हम सन्निधान को आश्रित बेल हैं। सहारा देने वाले सन्निधान के लिए हमें कण्टक नहीं बनना चाहिए। राजमहल की एकता ही सन्निधान के बल का मूल आधार है।"
"ये सब बहुत दूर की बातें हैं। मेरे दिमाग में ये आती ही नहीं। आपने ही कहा न कि भगवान् की इच्छा क्या है, कौन जाने!"
"उसके सामने कोई कुछ नहीं कर सकता। अब देखो न उस दिल्ली के बादशाह की बेटी को! बहुत सुन्दर हैं वह। किसी शहजादे से शादी करके सुखी रह सकती थी। सबका त्याग करके संन्यासिनी की तरह, सी भी अन्य धर्माश्रयी होकर, आ गयी है। ऐसी हालत में भविष्य बतानेवाले हम होते कौन हैं?।।
"सो तो सच है। परन्तु उनका यहाँ आना एक बात का प्रमाण बन गया।" "किस बात का?" "श्रीवैष्णव धर्म सबसे श्रेष्ठ है।" शान्तलदेवी ने तुरन्त कुछ नहीं कहा। "क्यों मेरा कहना ठीक नहीं?" लक्ष्मीदेवी ने फिर सवाल किया।
"यह बात हमारी चर्चा के दायरे से बाहर की है। इसलिए उसकी जरूरत नहीं।'' कहकर शान्तलदेवी ने विषय को पूर्ण-विएम दे दिया। फिर, "हमें एक मन होना चाहिए, एकता चाहिए, इतना साध लें तो काफी है।" कहकर पूछा, "कल मैं जा रही हूँ। एक बार पहाड़ पर चढ़कर वहाँ के मण्डप को देख आना चाहती हूँ। तुम भी चलोगी?"
बह भी साथ हो गयी। मौन ही दोनों पहाड़ पर चढ़ौं । रेविमय्या साथ रहा। उस दिन पहाड़ पर कोई विशेष व्यवस्था नहीं की गयी थी। पहाड़ पर चढ़कर मण्डप के सामने, अस्त होनेवाले सूरज को बहुत देर तक देखती हुई, शान्तलदेवी मौन बैठी रहीं। सूर्यास्त के बाद, धीरे से उठी और मण्डप के अन्दर गयीं। साथ लक्ष्मीदेवी भी थी तो उससे कहा, "यह स्थान मेरे लिए अत्यन्त पवित्र है। किसी तरह की विघ्न-बाधाओं के बिना व्यतीत किये उन सुखमय दिनों की स्मृति का प्रतीक है यह मण्डप । उत्तर की ओर राज्य का विस्तार हो जाने के कारण यादवपुरी उस पुरानी चहल-पहल को फिर से पा सकेगी या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता। मैं फिर यादवपुरी कब आऊँगी, कौन जाने ! यह स्थान मेरी सारी खुशियों के लिए मातृस्थान है। तुम्हारे भी सद्भाव इस यादवपुरी में रूप धारण करें।" कहकर पहाड़ से उतरकर राजमहल में आ गयीं।
दूसरे दिन दोपहर के भोजन के बाद, पट्टमहादेवी के दोरसमुद्र को प्रस्थान करने की बात निश्चित की गयी थी। मंगल-स्नान तथा विशिष्ट भोजन अदि की व्यवस्था
182 :: पट्टपहादेवी शान्तला : भाग भार