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"आप दिल्ली से जिस रामप्रिय को ले आये, उसकी पूजा हो रही है। वहाँ हैं। मैंने खबर दे दी। उन्होंने सिर्फ 'हाँ' कहला भेजा।"
"तो मतलब हुआ कि वह लड़की जब तक पूजा पूर्ण न हो, तब तक नहीं हिलेगी।" आचार्यजी ने स्वगत की तरह कहा।
"आचार्यजी, स्वीकृति दें तो मैं वहाँ जाना चाहूँगी।"शान्तलदेवी ने कहा 1 और के उत्तः सा वि .नी बोले"रम्बारजी, मुझे वहाँ ले चनेंगे?"
उसने आचार्य की ओर देखा। उन्होंने मुस्कराते हुए सम्मति दे दी। पट्टमहादेवी एम्बार के पीछे चल दी. उनके साथ रेबिमय्या भी हो गया।
श्री आचार्यजी ने दोरसमुद्र से लौटने के बाद रामप्रिय की पूजा-अर्चा के लिए एक आगमवेत्ता पुजारी को नियुक्त कर रखा था 1 पूजा-आरती के वक्त वे वहाँ उपस्थित रहते। एम्बार तो आगमवेत्ता के साथ ही होता । आज राजदम्पती के आगमन के कारण एम्बार को आचार्यजी के साथ रहने का आदेश दिया गया था।
पट्टमहादेवीजी रामप्रिय मूर्ति के लिए तत्काल निर्मित मण्डप के पास एम्बार के साथ गयीं। मण्डप के द्वार पर परदा लगा हुआ था। एम्बार वहीं खड़ा हो गया।
"अभिषेक हो रहा है। उसके समाप्त होने पर भगवान् को अलंकृत किया जाएगा। तब स्वामी के दर्शन होंगे।" एम्बार ने कहा।
"हाँ-हाँ, मगर बादशाह की बेटी कहाँ हैं?" "वह अन्दर हैं।" "तो हम भी अन्दर जा सकेंगी न?'' "अर्चना करनेवालों के सिवा अन्य किसी का अन्दर प्रवेश निषिद्ध है।" "तो वह अन्दर कैसे हैं ?।।
''उन्हें अन्दर न छोड़ेंगे तो अनशन करेंगी। इसलिए आचार्यजी ने उन्हें अन्दर रहने को कह दिया है।"
"यह निषेध क्यों?"
"हम जैसे नहाते वक्त और वस्त्र धारण करते वक्त एकान्त चाहते हैं, उसी तरह भगवान् के लिए ऐसा एकान्त प्रचलित है।"
"भगवान् तो सदा भक्तों को दिखाई देते रहना चाहिए न? बाहुबली स्वामी को देखा है? उनका अभिषेक करना हो तो ऊपर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियों सहित पण्डप बनाना पड़ता है। वह सदा प्रकर हैं। हमारी सारी पूजा अर्चा उनके चरणों में होती है। हमारे लिए उनके श्रीचरण ही उनकी परिपूर्णता का संकेत हैं।"
"हमारे लिए भी वही है। हमारे माथे पर का तिलक श्रीमन्नारायण के चरणों का संकेत है। ऐसी ही कुछ रूढ़ियाँ परम्परा से चली आयी हैं । भक्तों के कल्याण हेतु उन्हें बराबर बनाये रखना होता है।''
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 175