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"अभी तो आये हैं, एक आध घण्टा बाद आएँ तो नहीं चलेगा? यात्रा करके आये हैं, थोड़ा विश्राम करना उचित है।" नागिदेवण्णा ने धीरे से एम्बार से कहा।
"वैसा ही कर सकते हैं। मैं जाकर निवेदन कर दूंगा।" एम्बार बोला। "जब आचार्यजी ने स्वयं कहला भेजा है तो..." लक्ष्मीदेवी ने कहा।
"तो क्या हाथ पैर धोये बिना ऐसे अशुद्ध ही आचार्यजी के दर्शन के लिए चल दें? परिशुद्ध होकर गुरुगृह जाना चाहिए न! यहाँ से निकलने के पहले कहला भेजेंगे! जितनी जल्दी हो सकेगा, सेवा में पहुँचेंगे।" कहकर शान्तलदेवी ने चर्चा को पूर्णविराम लगा दिया।
"जो आज्ञा।" एम्बार चलने को था कि तभी शान्तलदेवी ने कहा, "दिल्ली के बादशाह की पुत्री से भी हमें मिलना है। उन्हें भी वहाँ बुलवा लाने की व्यवस्था करें या पठ के आचार की दृष्टि से यदि वहाँ आना मना हो, तो बाद में उन्हें यहाँ बुलवा लेंगे।"
"आचार्यजी से निवेदन कर दूंगा।" कहकर एम्बार चला गया।
हाथ-पैर धो-धाकर शुभ्र वस्त्र धारण कर महाराज, पट्टमहादेवी और रानी लक्ष्मीदेवी आचार्यजी के सन्दर्शन के लिए चल दिये। पूर्व सूचना होने के कारण आश्रमवासियों समेत आचार्यजी राजदम्पती की प्रतीक्षा में थे। नमस्कार आशीर्वाद के बाद नियत आसनों पर सन्त्र विराज गये।
"शिव मन्दिर का काम कहाँ तक हुआ?" आचार्यजी ने पूछा।
"आपके आशीर्वाद से काप सुगम रीति से चल रहा है। दोनों शिव-मूर्तियों के (लिंगों के) सामने दो बृहद् वृषभ विग्रह बिठाने पर स्थपतिजो विचार कर रहे हैं। उसके योग्य बृहत् शिला अभी प्राप्त नहीं हुई है।" यह कहकर, "यहाँ के चेलुवनारायण मन्दिर का निर्माण कार्य कहाँ तक पहुँचा है?" शान्तलदेवी ने प्रश्न किया।
"बहुत तीव्र गति से चल रहा है। नागिदेवण्णाजी किसी को बैठने नहीं देते। अचानक इस दर्शनलाभ का कारण?"
"खबर मिली कि रानी लक्ष्मीदेवी का स्वास्थ्य अच्छा नहीं, तो सन्निधान ने यात्रा का निश्चय किया। मेरी उत्कट इच्छा हुई कि दिल्ली के बादशाह की पुत्री से मिल। साथ चलने की अनुमति भी मिल गयी। इधर आपके दर्शन से मेरी सन्तुष्टि दुगुनी हो गयी।"
रानी लक्ष्मीदेवी के हृदय ने कहा, 'असल में यह तो एक बहाना है, पेरी परीक्षा लेने आयी हैं।'
"कुछ भी हो, जिनसे आत्मीयता हो, उनसे मिलने पर अपूर्व आनन्द होता है। आपके आनन्द के सहभागी हैं हम। एम्बार, राजकुमारी नहीं आयीं?" आचार्यजी ने पछा।
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174 :: पट्टमहारवी शान्तला : भाग चार