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"मुझे जो वास्तविक लगा वह यदि सन्निधान को अजीब लगे तो यही मानता पडेगा कि सन्निधान शंका कर रहे हैं कि मैं सच नहीं कह रहा हूँ।"
"मुझे तुम्हारी बात का विश्वास है। परन्तु जब बात विचार-बुद्धि से परे हो तब तुरन्त मान लेने को मन हिचकिचाता है।" बिट्टिदेव ने कहा।
"जो बीमारी किसी से भी अच्छी नहीं हो सकी बह आचार्यजी द्वारा दी गयी बुकनी से अच्छी हो गयी। उस पर यदि सन्निधान ने विश्वास कर लिया था तो इसका भी कर लेना चाहिए।"
बिट्टिदेव ने उसकी ओर तीन दृष्टि डाली।
"गलत कहा हो तो सन्निधान क्षमा करें। बात अनायास ही मुंह से निकल गयी।" रेविमय्या ने विनीत होकर कहा।
__"इस पर फिर विचार किया जाएगा। अब चलो, और भी यात्रा शेष है।" बिट्टिदेव बोले।
कटवप्र से उतरने के बाद राजपरिवार भोजन आदि से निवृत्त होकर, यदुगिरि की ओर रवाना हुआ।
पूर्व-सूचना दे दी गयी थी, इसलिए सचिव नागिदेवण्णा और दण्डनायक डाकरस, दोनों राजदम्पती का स्वागत करने उनकी प्रतीक्षा में थे। रानी लक्ष्मीदेवी भी अपने पिता के साथ यदगिरि आको हाराज के लय मा.शश भी आय होंगी, इसकी कल्पना भी नहीं की थी। पट्टमहादेवी को देखते ही उसे अन्दर-ही-अन्दर कुछ चुभनसी हुई, फिर भी उनका हंसते हुए स्वागत किया। ___रानी लक्ष्मीदेवी को देखते ही बिट्टिदेव ने आक्षेप किया, "स्वास्थ्य जब ठीक नहीं था तो यात्रा नहीं करनी चाहिए थी?"
"क्या करें, कहने पर भी नहीं मानती थी, कितना समझाया! अब तो स्वास्थ्य कुछ सुधर गया है। सन्निधान के कहे मुताबिक अभी उसे विश्रान्ति की जरूरत है, यह बात समझायी, फिर भी यात्रा करने की आज्ञा दे दो!" धर्मदर्शी बोला।।
__ "आपने ही ब्यौरा दे दिया तो बात समझ में आ गयी, छोड़िए। हमने वास्तव में, सोमनाथ पण्डित को साथ लाना चाहा था। पट्टमहादेवीजी भी आरोग्यशास्त्र से परिचित हैं। इन्होंने सलाह दी कि फिलहाल पण्डितजी की जरूरत नहीं, स्वयं देखकर निर्णय करना उचित होगा। अब लगता है कि वैद्य की जरूरत नहीं।"
"सन्निधान के आगमन की बात सुनकर ही बीमारी अपने आप दूर हो गयी।" "यह बात पट्टमहादेवी ने वहीं बता दी थी।" "वे अनुभवी हैं।"
यों कुशल प्रश्न हो ही रहे थे कि आचार्यजी का शिष्य एम्बार आया और उसने विनती की, "आचार्यजी राजदम्पती की प्रतीक्षा में हैं।"
पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार :: 173