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"ठीक, विचार करेंगे।'
विचार करने के बाद बिट्टिदेव की यात्रा निश्चित हुई। परन्तु यह भी निश्चित हुआ कि जगदल सोमनाथ पण्डित, जहाँ पट्टमहादेवी और बच्चे हों, वहीं उनके साथ रहें ।
रवाना होने से पहले पट्टमहादेवी ने महाराज के पास आकर एक छोटी-स्त्री सलाह दी, 'जते हुए में दर्शन होकर वहाँ के वन्दि का कार्य कहाँ तक हुआ हैं, इसे जान लें और... वह जो यवन- कन्या है, उसके विषय में मुझे खबर भिजवाएँ।" "ऐसी कोई खास बात हो तो स्वयं आचार्यजी ही बता देंगे। मन्दिर के निर्माण के बारे में चिन्तित होने का कोई कारण नहीं है। बेलापुरी के शिल्पी वहाँ गये ही हैं। इस पर नागिदेवष्णाजी जब वहाँ हैं, तो हमें देखने की कोई जरूरत नहीं है।"
"फिर भी सन्निधान हो आएँ तो अच्छा है, यही मुझे लगता है। यवन राजकुमारी को भारतीय देवता पर इतनी श्रद्धा भक्ति है, तो यह एक असाधारण बात है। इसके लिए उन्हें ऐसी प्रेरणा कहाँ से मिली होगी, किस तरह से मिली यह जानना अच्छा है | मत भिन्नता के कारण आपसी मनमुटाव का बढ़ना देखते हुए हमारे लिए उनके अन्तस् को पहचानना-समझना क्या उचित नहीं ?"
'यह सब हमसे नहीं हो सकेगा। तुम ही चलो तो ठीक होगा।"
शान्तलदेवी ने क्षणभर सोचकर कहा, " अच्छी बात है। परन्तु मैं सन्निधान के साथ यादवपुरी नहीं जाऊँगी, सीधी राजधानी लौट आऊँगी।"
"
'तुम्हारी इच्छा!"
इसी तरह से यात्रा का कार्यक्रम निश्चित हुआ । उदयादित्यरस को राज्य की सीमा की रक्षा के लिए स्थायी रूप से नंगली में रहकर समुचित व्यवस्था करने का आदेश दिया गया था। उसे परिवार के साथ वहाँ जाने की व्यवस्था की गयी थी। परन्तु अब राजदम्पती को इस यात्रा के कारण पट्टमहादेवीजी की वापसी तक दोरसमुद्र में रहने और उनके लौटने के बाद नंगली जाने का निर्णय लिया गया।
कार्यक्रम के अनुसार यात्रा शुरू हुई। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि विभय्या भी साथ था। पट्टमहादेवी की इच्छा थी, इसलिए राजपरिवार रास्ते में बाहुबली के दर्शन करने रुका। बाहुबली के पुजारीजी देवलोक सिधार चुके थे, इस वजह से पट्टमहादेवीजी को उनके दर्शन नहीं हुए। इतने में रेविमय्या ने एक छोटी सो सलाह दो : 'कटवप्र पर चढ़कर बाहुबली का दर्शन किया जाए।' राजदम्पती ने अपनी सम्पति सूचित कर दी। कटवन पर पहुँचकर तीनों उसी पुरानी जगह पर खड़े हो गये। रेविमय्या सदा की तरह भाव-समाधि में लीन हो गया। उस समय शान्तलदेवी ने उस पुरानी घटना का स्मरण कर कहा, "जब रानी पद्यलदेवी के साथ यहाँ आयी थीं, तब सौतों के बारे में बात चल पड़ी थी। उस बातचीत का सारा ब्यौरा विस्तार से सुनाकर बोलीं,
पट्टमहादेवां शन्तला : भाग चार :: | 71