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स्थापना पट्टमहादेव मालदेवी और शालेश्वर मन्दिर की नाव-स्थापना विट्टिदेव के हाथों एक साथ सम्पन्न हुई। उस समय वहाँ उपस्थित किसी के मन में, नींवस्थापना करनेवाले दोनों शिवभक्त नहीं हैं, ऐसा भाव ही उत्पन्न नहीं हुआ। तेजी के साथ मन्दिर निर्माण का कार्य एक ही जगह पर होने लगा।
जकणाचार्य के आदेश के अनुसार दोनों मन्दिरों को भव्य एवं सुन्दर बनाने के लिए स्थपति ओडेयगिरि हरीश ने रात-दिन इस निर्माण में अपना तन-मन लगा दिया। उनकी मदद के लिए बल्लपण, बोचण, देवोज, चंग, माचण्ण, कालिदास के दारोज, मलिंबालक, रेवोज आदि अनेक शिल्पी बड़ी श्रद्धा एवं तन्मयता से कार्य करते रहे । पटमहादेवी और कुँवर बिट्टियण्णा ने वेलापुरी के मन्दिर-निर्माण के समय जिस उत्साह से कार्य किया था, उसी तरह यहाँ का कार्य संभालते रहे।
स्थपति के चले जाने के थोड़े ही दिनों के अन्दर, रानी पद्मलदेवी और उनकी बहनें अपने पिता की जागीर सिन्दगैरे के लिए रवाना हुईं। पट्टमहादेवी ने तो कहा कि हरियलदेवी के विवाह के बाद जाएँ, परन्तु "तब आ जाएंगी। यह विवाह तो मैंने ही निश्चित कराया है न?" कहकर सनी पद्यलदेवी ने यात्रा आरम्भ की थी।
विजयोत्सव के पश्चात् आसन्दी गये हुए, मंचियरस का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है, ऐसी ख़बर आयी। इससे रानी बम्मलदेवी और राजलदेवी महाराज की सम्मति पाकर आसन्दी की ओर रवाना हुई। तब तक रानी पद्यलदेवी और उनकी बहनों को सिन्दगेरे गये पखवाड़ा बीत चला था।
तभो, चार-छह दिनों के अन्दर ही, रानी लक्ष्मीदेवी के अस्वस्थ होने की खबर मिली। बिट्टिदेव ने कहा, "जगदल सोमनाथ पण्डित को भेज दिया जाए।"
शान्तल देवी ने कहा, "पण्डितजी के साथ सन्निधान भी जाएँ तो अच्छा। पण्डितजी से अधिक पतिदेव का सान्निध्य स्वास्थ्य लाभ के लिए अपेक्षित है।"
''रोज-रोज के झगड़े के लिए हमें वहाँ जाना होगा?"
"न-न, रानी की अभी कितनी-सी उम्र हैं! ना-समझ है। कुछ कह बैठती है तो सन्निधान को क्षमा कर देना चाहिए। बेकार का या विरही स्त्री का मन भूत का डेरा बन जाता है। इसका मौका नहीं देना चाहिए।"
'' पट्टमहादेवी भी साथ चल सकती हैं ?''
"मैं तैयार हैं। परन्तु केतमल्लजी का यह युगल मन्दिर है। वे और स्थपतिजी मान जाएँ तो मैं चल सकती हूँ।"
"हमें क्या उनके कहे अनुस्वार चलना होगा?" __ "हमने मदद देने का वचन जो दिया है, उसे यदि वापस लेना हो तो दूसरी बात ! निधान ने ही कैतमल्ल और उनके माता-पिता को वचन दिया है कि मन्दिर का काम समाप्त होने तक पट्टमहादेवो दोरसमुद्र को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाएँगी।"
170 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार