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यादवपुरी में तिरुवरंगदास का कार्यकलाप अधिक न होने पर भी थोड़ा-थोड़ा आरम्भ हो गया था। उधर दोरसमुद्र में शंकुस्थापना का कार्य बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ।
मूल रेखाचित्र में ओडेयगिरि के स्थपति हरीश ने जकणाचार्य की सलाह के अनुसार काफी परिवर्तन कर दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने कहा, "मैंने मूलत: आप ही के नमूने का अनुकरण किया है। अन्तर इतना ही कि यह युगल-मन्दिर हैं और शिव पन्दिर होने के कारण उसके संकेत के रूप में दो वृषभ-मण्डप भी हैं । शायद कोई अशुभ घड़ी थी कि जिससे वेलापुरी मुझे रास नहीं आयी थी। बाद को लगा कि वह एक जल्दबाजी का निर्णय था। परन्तु मेरी धृष्टता को क्षमा कर, मेरे रेखाचित्र को स्वीकार कर मुझे गादि दी. इसको लिए मैं जमा हूँ : आपकी शिल्प एवं वास्तुपरम्परा को मैं आगे बढ़ाऊँगा। आपने जिस नमूने का सृजन किया वह कई सदियों तक अनुकरणीय बनकर रहेगा, मेरा ऐसा विश्वास है। शिल्पी होते हुए भी जब मैंने आपके उन रेखाचित्रों को देखा था तब मुझे ऐसा नहीं प्रतीत हुआ कि यह मन्दिर इतना सुन्दर
और भव्य बन जाएगा। जकणाचार्य का नाम पोय्सल शिल्प के नाम से चिरस्थायी होगा। मैंने सुना कि आपने अपने गाँव में मन्दिर निर्माण कार्य का संकल्प किया है,
और जब तक वह कार्य पूर्ण न होगा तब तक अन्यत्र कार्य नहीं करेंगे। फिर भी इस मन्दिर का कार्य सम्पूर्ण होने तक यहीं रहकर मार्गदर्शन देते रहे तो मैं अपना अहोभाग्य समझेंगा।"
"महासन्निधान और पट्टमहादेवीजी की स्वीकृति लेकर, चलने के लिए मुहूर्त भी निश्चय कर लिया गया है। केवल इस युगल-मन्दिर की नींव-स्थापना के लिए हम रुके हुए हैं। वेलापुरी में जिन शिल्पियों ने काम किया उनमें के बहुत से शिल्पी साथ रहेंगे ही. इसलिए वह मेरे रहने के ही समान है। सबसे अधिक विशेष बात यह है कि पट्टमहादेवीजी रहेंगी तो वे प्रेरणा देती रहेंगी। आपने कहा कि वेलापुरी का मन्दिर सुन्दर हैं, सच है। परन्तु उसकी सुन्दरता का कारण पट्टमहादेवीजी हैं, मैं नहीं। बहुत से परिवर्तन हुए। उनके दिग्दर्शन में काम करना ही सौभाग्य है। अब निर्मित होनेवाला यह मन्दिर वेलापुरी के मन्दिर से भी उत्तम बने, इस तरह का वे मार्गदर्शन करेंगी। यहाँ का कार्य समाप्त होने के बाद क्रीड़ापुर को अपनी चरणरज से पवित्र करें।"
"हाँ।" हरीश ने स्वीकृत्ति सृचित्त की।
नौंव-स्थापना के दो-तीन दिनों के बाद जकणाचार्य की क्रीड़ापुर की यात्रा निश्चित हुई। उस विदाई का वर्णन नहीं किया जा सकता। उस समारम्भ में आत्मीयता थी, किसी तरह का दिखावा या धूमधाम के बिना सारा समारम्भ बहुत शान्त रीति से सम्पन्न हुआ। कहना होगा कि एक भव्य मन्दिर के निर्माता कलाकार की विदाई गौरवपूर्ण रीति से सम्पन्न हुई। इसके पहले राजमहल में जो भोज दिया गया, वह शायद दोरसमुद्र के लोगों के लिए नवीन था। इस तरह का भोज चालुक्य पिरियरसी चन्दलदेवीजी
168 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार