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असाधारण परिस्थिति में श्री आचार्यजी का यथाशीघ्र यदुगिरि पहुँचना आवश्यक हैं हम यहाँ आपस में 'मेरा धर्म श्रेष्ठ हैं, तुम्हारा अश्रेष्ठ' को लेकर वाद-विवाद कर रहे हैं। उधर यह यवन राजकुमारी हमारे भगवान से इतना प्रेम करती हैं। ऐसी दशा में इस चेलुवनारायण की श्रेष्ठता को किसी दूसरे प्रमाण की क्या जरूरत? आप ही सोचें।" कहकर पेरुमलै ने अपना वक्तव्य पूरा किया |
आचार्यजी ने कहा, "भगवान् की लीला ही विचित्र है । "
शान्तलदेवी ने कहा, "इससे बढ़कर क्या प्रमाण चाहिए ? धर्म और भगवान् प्रेम का संचार करने के लिए ही होते हैं, द्वेष का नहीं। यदि प्रेम न होता तो उस यवनकुमारी को यदुगिरिं तक यात्रा करने की क्या आवश्यकता होती? भगवान् के उस प्रेमी को अधिक दुखी नहीं करना चाहिए। राजमहल आचार्यजी के प्रस्थान हेतु उचित व्यवस्था करेगा। अब इस सभा का विसर्जन किया जाए।"
सभा विसर्जित हुई। घण्टी बजी। सब चले गये।
दो दिन के भीतर ही आचार्यजी पहुँच सकें, ऐसी व्यवस्था के लिए आदेश हुआ। इसकी जिम्मेदारी मायण पर छोड़ दी गयी। परिणामस्वरूप उचित रक्षकदल के साथ आचार्यजी को यदुगिरि पहुँचाकर, मायण लौट आया।
रानी लक्ष्मीदेवी यादवपुरी जाने की जल्दी कर रही थीं। पट्टमहादेवी ने सलाह दी कि शिवालय की नींव स्थापना के बाद जाना अच्छा होगा। लक्ष्मीदेवी ने कहा, "शिव, जिन - ये सब मुझे नहीं भाते। सिर्फ दिखावे के लिए मुझे यहाँ रुकने पर जोर न दें ! मुझे जाने दीजिए। मैंने मन की बात कह दी, आप अन्यथा न लें। "
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'तुम केवल तिरुवरंगदास की पुत्री होतीं तो निर्णय किसी तरह का हो सकता था। तुम सन्निधान की पाणिगृहोता हो। ऐसी हालत में सन्निधान जिस किसी कार्य में रुचि रखते हों, उसमें तुम्हारे लिए भी प्रयत्नशील होना चाहिए।" शान्तलदेवी ने कहा । " मैं इस तरह अपमानित होकर इन लोगों को अपना चेहरा कैसे दिखा सकूँगी ? इस पचड़े में मेरा भी नाम घसीटकर मेरे साथ अण्ट सण्ट बातें भी जोड़ दी हैं इन लोगों ने। इन सबका दुःख कम हो, लोग भी भूल जाएँ: इसलिए सन्निधान से कहकर समझाएँ और मुझे जाने की अनुमति दिलवाने का अनुग्रह करें।" लक्ष्मीदेवी की ये बातें व्यंग्य से भरी थीं।
"मानव के जीवन में ऐसे दुख-दर्द आते रहते हैं। इन्हें सहन करने की क्षमता हममें होनी चाहिए। "
पट्टमहादेत्री शान्तला भाग चार:: 150