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श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ कहकर लोगों में विष का बीज बोने के कारण बने हैं। शिष्यों की गलती के लिए गुरुओं को दण्ड नहीं भोगना चाहिए। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने व्यवहार में शुद्ध हृदय से आचरण करने की रीति अपनाए। मन शुद्ध होगा तो अपवित्र विचार उत्पन्न ही नहीं होंगे। इसलिए आज के दिन सम्पन्न इस धार्मिक विचार-- संगोष्ठी के विषय में किसी तरह की हार-जीत की कल्पना कर उसका प्रचार नहीं करेंगे, यह भी हमारा आप सभी से अनुरोध है।"
बिट्टिदेव ने सभा को विसर्जित करने के लिए आचार्यजी से अनुमति माँगी, तो आचार्यजी ने कहा, "मुझे भी एक निवेदन करना है।''
अब सभा विसर्जित हो तो कैसे? उन्हें दोलने के लि का दिया ने कहा, ''हेगड़े मारसिंगय्याजी ने इस राजधानी में निर्मित होनेवाले युगल शिवमन्दिर के भविष्य के बारे में प्रास्ताविक रूप से एक सूचना दी है। ऐसी भव्य भावनायुक्त मन्दिर की शंकु-स्थापना हमारे हाथ से हो, यह राजदम्पती का आदेश था । वह हमारा सौभाग्य होता, परन्तु हमें खेद है कि वह हमें प्राप्त नहीं हो सकेगा। इसके लिए हमें क्षमा-याचना करनी पड़ रही है। हमारी ही इच्छा के अनुसार निर्मित विजयनारायण मन्दिर के बारे में भी प्राप्त अवकाश का उपयोग हमसे नहीं किया जा सका। ऐसी स्थिति में कोई यह न समझे कि हम किसी उद्देश्य से यह टाल रहे हैं। आज यदुगिरि से जो हमारे शिष्य पेरुमले आये हैं, वे इसका कारण बताएंगे। इसके लिए उन्हें अनुमति
अनुज्ञा मिली। पेरुमलै उठ खड़े हुए। उन्होंने आचार्यजी और राजदम्पती को प्रणाम किया। फिर बोले, "मैं आचार्यजी के लिए यदुगिरि से एक बहुत जरूरी सन्देश लाया हूँ। सचिव नागिदेवण्णाजी ने तत्काल यात्रा के लिए व्यवस्था कर दी। इसलिए मैं तुरन्त यहाँ चला आया। आप सभी लोगों को विदित है कि आचार्यजी को स्वप्न में दिल्ली के बादशाह के यहाँ स्थित चेलुवनारायण मूर्ति को वहाँ से छुड़ाकर ले आने का आदेश भगवान् ने दिया था। तदनुसार इस आदेश का पालन करने दिल्ली गये और चलुवनारायण की पंचलौह की उस मूर्ति को यदुगिरि ले आये। वहाँ पूजा-विधान आदि कार्य सम्पन्न हो रहे हैं। परन्तु बादशाह की बेटी को उस मूर्ति से बहुत लगाव रहा है। वह उसके साथ रमी रही, कभी भी उससे अलग नहीं रही। अपनी परम प्रेमपात्र उस मूर्ति के गायब हो जाने के कारण वह ,राजकुमारी तड़पकर खाना-पीना तक छोड़कर अत्यन्त दुखी हो गयी ! अन्त में उसे जब मालूम हुआ कि मूर्ति कहाँ गयी है, तो उसकी खोज में वह दिल्ली से बदुगिरि जा पहुँची हैं, और उस मूर्ति को मांग रही है। गुरुवर्य की आज्ञा के बिना मैं कुछ कर नहीं कर सकता, यह कहने पर भी वह नहीं मानी। कहती है कि जब तक मूर्ति उसे नहीं मिलेगी तब तक पानी भी नहीं छुएगी। यदि आचार्यजी तुरन्त वहाँ नहीं पहुंचेंगे तो वह राजकुमारी शायद प्राण ही त्याग दे। इस
158 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार