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धर्माधिकारी, पुजारी वर्ग के सभी लोग उपस्थित थे। बेलापुरी से भी अनेक जिज्ञासु आये हुए थे। सभा गण्यमान्य विद्वानों से भर गयी थी। सहृदयता के वातावरण में विचार-गोष्ठी आरम्भ हुई।
श्री आचार्यजी, जगदल सोमनाथ पण्डित, प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव, नयकीर्ति, शुभकीर्ति, तिरुवरंगदास, आचार्यजी के एक और शिष्य पेरुमल जो हाल में आये थे. हेग्गड़े मारसिंगय्या, बिट्टिदेव और पट्टमहादेवी शान्तलदेवी, सबने इस सभा में अपनेअपने विचार व्यक्त किये।
सोमनाथ पण्डित ने कहा, "सभी धर्मों का लक्ष्य एक है। मार्ग भिन्न हैं। वैदिक धर्म की नींव अद्वैत है।" आचार्य के शिष्य ने कहा, "नींब वहीं होने पर भी उसमें अहंकार के प्रवेश का अवकाश रहता है। मानव समझने लगता है कि वह स्वयं ही परात्पर शक्ति है. इस तरह के भ्रम में पड़ जाता है। अद्वैत मार्ग में भी तत्त्व का समन्वय परात्पर शक्ति की स्थिति में अन्वित होना है। लेकिन यह 'अह' उसे गलत मार्ग पर ले जाता है। इसलिए उस परात्पर शक्ति का दास समझकर, दास्य भावना से विनीत होकर चलने से, उसकी दया प्राप्त करके सायुज्य की प्राप्ति की जा सकती है। यहाँ 'अहंभाव' नहीं रह जाता।" नयकीर्ति शुभकीर्ति--दोनों ने बताया, "जिन धर्म का गठन
अहिंसा और त्याग के आधार पर हुआ है। त्याग में उदारता है। उदारता में मन की विशालता हैं । में, मेरा आदि के लिए यहाँ गुंजायश ही नहीं है । अहिंसा, त्याग, उदारता, आत्म-शुद्धि इनमें विनीत भाव निहित है।"
श्री आचार्यजी ने भी अपने धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों का विस्तृत परिचय दिया। पश्चात् प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव ने जैनधर्म के सिद्धान्त को बड़ी सूक्ष्मता से विस्तृत रूप से समझाया जो सबको बहत भाया।
मारसिंगय्या ने अपने विचार प्रकट किये,"धर्मपीठ के समक्ष मेरा निवेदन करना कुछ अजीब-सा लगता है, अद्वैत में शिवाराधन की आद्यता रहती आयी है। उस शिवत्व या ईश्वरत्व को हम स्वरूप देने नहीं गये । ब्रह्माण्ड को ही उस तत्त्व ने आवृत्त किया है। उसका कोई रूप नहीं; आदि-अन्त नहीं। इस निराकार में पानव अपने मन को न्यस्त करे तो वह किसी भी तरह के भावोग के वशीभूत नहीं होता। उससे निर्विकल्पता साधित होती है। भारतीय धर्म की वहीं बुनियाद है। इस तत्त्व पर, तरहतरह के आवरणों के कल्पित नये-नये रूप-आकारों का निर्माण कर सकते हैं। परन्तु इन भित्तियों का निर्माण उसी नीत्र पर होना चाहिए। अद्वैत स्थिरता को रूपित करता है। इसलिए पन्थ्य-परिवर्तन, बाहरी रूप का परिवर्तन अनावश्यक है; यह शाश्वत नहीं है। परिवर्तित न होने वाली यह बुनियाद ही स्थायी है। अपनी इस नींव पर चाहे कोई इमारत बने, डर नहीं। क्योंकि नींव सदा-सर्वदा स्थायी ही रहेगी। अन्य से आक्रान्त होने का डर अद्वैत को कतई नहीं। इसी वजह से पेरे परिवार में विरसता नहीं। यहाँ
155 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार