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के बारे में इतना ही मालूम पड़ा कि वह शत्रु पक्ष का आदमी है। मगर किस राजा का खुफिया है, यह अभी भी मालूम नहीं हुआ। उसने भी नहीं कहा। पोय्सल राज्य की शक्ति को तोड़ने के उसके सारे प्रयत्न साबित हो गये, उसे लाचार होकर स्वीकार करना पड़ा।
वामशक्ति पण्डित पहले से ही आचार्य से ईर्ष्या करता था। वह ईर्ष्या अब मतद्वेष में बदल गयी थी। इसका दुरुपयोग बीरशेट्टी ने किया, यह भी स्पष्ट हो गया। तिरुवरंगदास, रानी लक्ष्मीदेवी और शंकर दण्डनाथ अपने अविवेकी स्वार्थ के कारण इस जाल में फँस गये, यह बात उनके मन में स्पष्ट हो गयी।
बीरशेट्टी ने समझा कि अपना कर्तव्य उसने पूरा किया है। इस तृप्ति में वह दण्ड भोगने के लिए तैयार हो गया।
वामशक्ति पण्डित को गुरु-स्थान से हटाकर देश-निकाले का दण्ड दिया गया। ऐसा नहीं लगता था कि उसे अपने किये पर पश्चात्ताप भी हुआ हो। तिरुबरंगदास ने श्री पश्चाताप का प्रदर्शन किया।
शंकर दण्डनाथ सचमुच अपनी कमअक्ली पर लज्जित हुआ। उसके काम से यह स्पष्ट था कि राज्य के प्रति विचारे, इलिए उसे आगाह किया गया कि वह अपने को सुधार ले और सही व्यवहार करे। उसके अधिकारों को कम कर दिया गया।
रानी लक्ष्मीदेवी लगातार दो दिन तक आँसू बहाती रही। वह अपने आप में सोचती रही, किसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता। सभी धोखेबाज हैं। मुँह से कहलवाने की ही कोशिश करते हैं और दोष लगाते हैं। राजमहल के रंग-ढंग ही मेरी समझ में नहीं आते। मैंने कभी पटरानी बनना नहीं चाहा था। यों तो रानी बनने की भी आशा मुझको नहीं थी। यह मेरे पिता का काम है। वह भी वैसे ही आदमी हैं। कभीकभी अकल बिगाड़ देते हैं। कुछ भी मालूम नहीं पड़ता कि क्या करना चाहिए। इतने लोगों के सामने अपमानित हुई। छिपकर कहीं भाग जाने की इच्छा होती है। यहाँ रानी बनने की अपेक्षा किसी पुजारी की पत्नी होती तो शायद अच्छी रह सकती थी । पूर्व जन्म के पाप के कारण यह सब सुनना पड़ा है, यह अपमान सहना पड़ा है। नौकरचाकरों को भी मुँह दिखाते शरम लगती है। यह सब क्या हो गया!' यह सब सोचकर रोती-बिलखती रही। धीरे-धीरे इस दुख से छुटकारा पाने की कोशिश करती हुई, यादवपुरी जाने की सोचकर वहाँ जल्दी से जल्दी भेज देने का अनुरोध करने लगी। श्री आचार्यजी अपने मन में विचार करने लगे, 'हे भगवन्, यह कैसी दुनिया है ! यदि तुम्हारी सेवा करना ही पाप माना जाय तो यह कैसे समझें कि तुम हो ! जब हमें हो ऐसा लगने लगे तो फिर साधारण लोगों की क्या दशा होती होगी! बाहर से यहाँ आकर हम इन लोगों के साथ मिल-जुलकर रह रहे हैं, इसी से इस तरह की बातों का
154 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार