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राजधानी में यह युगल शिवमन्दिर निर्मित होनेवाला है। वह अद्वैत का साक्षी बनेगा। इतना ही नहीं, सदियों तक लोगों को उकरता लूंगा। को भो आकर्षित करे तो आश्चर्य नहीं। अद्वैत की शक्ति उसके स्थायित्व में हैं। वह कभी परिवर्तित नहीं होगा, इसलिए अद्वैत किसी भी मत का विरोधी नहीं ।" बिहिदेव ने कुछ नहीं कहा। मगर शान्तलदेवी ने सम्बोधित कर कहा, "सन्निधान ने मुझे आज्ञा दी है कि उनकी तरफ से और अपनी तरफ से भी, मैं ही बोलूँ । इसलिए मैं हो निवेदन करूंगी। धर्म के विषय में वाद-विवाद करते जाएँगे तो वह हमें किसी निश्चय की ओर नहीं पहुँचाएगा। धर्म एक वैयक्तिक विश्वास है। आचार की एक विचारधारा है। उसे जीवन का पूरक बनना चाहिए न कि भारक। जीवन के लिए मारक बननेवाली विचारधारा का सृजन करनेवाले धर्मभीरु धर्मद्रोही हैं। वे धर्म के लिए अपने जीवन को उपयुक्त रीति से ढालने वाले नहीं, वे तो केवल धर्म-चिह्न के लिए लड़नेमरने वाले होते हैं। वे समाज के लिए कण्टकप्राय हैं। इस भूमि पर जब से मानव का अवतार हुआ, तब से जैसे-जैसे उसकी विचार शक्ति बढ़ती गयी, उसकी कल्पनाएँ बदलती गर्यो और जैसे-जैसे उनकी आवश्यकताएँ बढ़ती गर्यो, वैसे-वैसे कई परिवर्तन होते आये हैं। यह कि परिवर्तन नये उत्साह को प्रेरित करता है। वह व्यक्ति की रुचि का प्रेरक भी हो सकता है। इस दृष्टि से नवीन विचारधारा का स्वागत होना चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि उससे अभिभूत हो जाएँ। न उससे डरना ही है। खुले दिल से उसका परिशीलन करने के लिए अवकाश रहना चाहिए। अब तक धर्म के इन अनेक 'रूपों पर हमने विचार सुने। हमारे रेविमय्या को बाहुबली स्वामी ने किरीट, कुण्डल, गदा, पद्म धारण कर दर्शन दिये हैं। वह धर्म के बारे में चिन्तन करनेवाला व्यक्ति हैं ही नहीं उसकी सारी चिन्तन क्रिया निष्ठापूर्ण सेवा में लगी है। वह न जैन है, न वैष्णव ही । इसलिए यह सब अपने- अपने विश्वास और कल्पना पर आधारित है । सन्निधान की तरफ से राज्य को प्रजा से हमारा यही अनुरोध है कि धर्म के नाम से द्वेष का बीज बोकर समाज की अवनति के कारण न बनें। मुझे व्यक्तिगत रूप से अपने गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव पर जितनी भक्ति और श्रद्धा है, उतना ही आदर-गौरव श्री आचार्यजी के प्रति भी हैं। इसी तरह सन्निधान आचार्यजी के प्रति जितनी श्रद्धा रखते हैं, उतनी ही मेरे गुरु पर और अन्य गुरुजनों पर भी रखते हैं। इस संगोष्ठी में हम सबने खुले दिल से बातें की हैं। गुरु स्थान में रहनेवाले महानुभावों ने भिन्न-भिन्न मतानुयायी होते हुए भी, किसी तरह की कटुता के बिना, अपने सिद्धान्तों का विवेचन कर महान् उपकार किया है। राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता है। वह चाहे किसी भी मत का पालन करे, उसके लिए गुंजायश है। परन्तु किसी भी मत के प्रति द्वेष न करे। द्वेष करनेवालों के लिए इस राज्य में स्थान नहीं। यह बात मुझ पर भी लागू है। हमें एक बात का अनुभव हुआ है। गुरुवयं के निर्लिप्त होने पर भी उनके निकटवर्ती शिष्य
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पट्टमहादेवी शान्तला भाग नारे 157