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चाहता हो तो कम से कोई न कोईला। ... म्या ला है। इसका पता लगाना चाहिए। यह बहुत जरूरी है, इसलिए तुम मान लो' और सलाह दी कि वह जो कहता है वह सब करो। मैंने वैसा ही किया। एक दिन यता नहीं, कौन-कौन इसके घर आये। उन लोगों से ये शेट्टी क्या बातचीत करेंगे, यह सुनना चाहा परन्तु नहीं हो सका। ये लोग गुप्तरूप से मिला करते। इसके लिए अमीन के नीचे एक कमरा बनवाया गया। उसके अन्दर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। इन सीढ़ियों के छोर पर एक दरवाजा है। उसे नीचे से बन्द कर दें तो कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता। वार- बार इस तलघर में ये लोग मिलते थे। मुझे कुछ शंका हुई। इस बात को भी मैंने दण्डनायकजी से कहा। उन्होंने कहा, 'मैं एक व्यक्ति को भेज दूंगा, उसे किसी तरह इस तलघर में भेज देना।' इस पर मैंने कहा, 'वह मुश्किल है, सदा ताला लगा रहता है। तो उन्होंने पूछा, 'वहाँ कैसे-कैसे लोग आया करते हैं?' मैंने कहा, 'कभी केवल तिलकधारी ही आते हैं, तो कभी-कभी जैन हो आते हैं।' उन्होंने पूछा, 'तो क्या करना चाहिए? कब कौन वहाँ मिलते हैं, यह बता सकती हो?'
मैंने कहा, 'कोशिश करूंगी। क्योंकि जिस दिन इन लोगों की बैठक होती है, उस दिन सबके लिए वहाँ विशेष भोजन बनता है। मिलने वालों ने बताया कि उन्हीं मतावलम्बियों से खाना तैयार कराया जाता है। वह पहले ही बता दिया जाता है।' उन्होंने कहा, 'तो ठीक है। उसका ब्यौरा तुम हमें दोगी। तुमने जिन लोगों को बातें करते सुना है, उनका सम्बन्ध इन बैठकों से अवश्य होना चाहिए । बाकी मैं देख लूँगा।' यों दण्डनायकजी ने कहकर मुझे सतर्क कर दिया था।"
"उसके बाद क्या हुआ?" चट्टलदेवी ने पूख्य ।
"क्या हुआ सो तो मालूम नहीं । मगर शेट्टीजी की दौड़-धूप बहुत तेज हो चली श्री। दो-एक वार हमारे ये धर्मदर्शीजी भी वहाँ आये थे। शेट्टीजी ने दो-तीन बार कहा था कि रानीजी से मिलना है। यह बात दण्डनायकजी से कहकर रानीजी से मिलने के लिए दो-तीन बार व्यवस्था भी करायी थी।"
"यह सब कब हुआ था?" चट्टलदेवी ने पूछा। "मतलब?" '' आचार्यजी के लौटने के बाद या उसके पहले?"
"वह तो चल ही रहा था। पहले भी मिलते थे, बाद को भी इनकी बैठकें होती रहीं।"
"आचार्यजी के यहाँ आने के बाद भी?"
'वहाँ कोई रहे नहीं। दण्डनायकजी, सचिव, रानियाँ सभी आ गये थे। शेट्टी जी की बैठकें और कार्यक्रम बहुत अधिक होने लग गये।"
"कैसे कार्यक्रम?"
138 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार