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'वह दण्डनायिका एचियक्काजी के यहाँ सेविका है। परन्तु सन्निधान के समक्ष शायद निवेदन करना पड़े खयाल से उसे यहाँ बुलाया है।" नलदेवी ने कहा । "जिस किसी पर दोष थोपने की पहले से ही पूरी तैयारी है, ऐसा लगता है। मुझको एक कैदी की तरह यहाँ नहीं लाया गया। यहाँ पहुँचने तक मैं यही समझता रहा कि मैं सन्निधान का आदेश पालन करने के लिए हो आया। वेलापुरी पहुँचने के बाद मुझे मालूम हुआ कि मैं राजमहल का कैदी हूँ। मैंने नहीं समझा था कि इस तरह से धोखा दिया जाएगा।" बीरशेट्टी बोला।
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'धोखा किसने दिया, यह पीछे चलकर स्पष्ट होगा।" चट्टलदेवी ने कहा । चंगलदेवी आयी । झुककर प्रणाम किया। चट्टलदेवी ने बेल्लिय बीरशेट्टी को दिखाकर उससे पूछा, "इन्हें जानती हो।"
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'ओह! अच्छी तरह जानती हूँ।"
'कैसे ?"
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"मैं दण्डनायकजी के घर की सेविका हूँ। राजमहल में आया-जाया करती हूँ । ये जेवर बनाने के लिए कभी-कभी आया करते हैं। इसलिए मैं इनसे अच्छी तरह परिचित हूँ, इनकी आवाज भी पहचानती हूँ । यदि आँखों के सामने न भी रहें तो आवाज मात्र से इन्हें मैं पहचान सकती हूँ।"
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'इनकी आवाज से इतने धनिष्ठ परिचय का कारण ?"
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'नया जेवर तैयार हो, या नया-नया कोई नमूना तैयार करें, तब यह मुझे कहला भेजते हैं। इसलिए अनेक बार इनसे मिलने और बातचीत करने का मौका मिला है, इनकी आवाज कानों में बैठ गयी है।"
" जेवर बनाने में धोखा भी ये देते हैं ?"
"न, कभी नहीं। इस बारे में किसी तरह की शिकायत के लिए गुंजायश नहीं। दण्डनायिकाजी जब कभी जेवर खरीदर्ती तब ये मुझे कुछ पुरस्कार देने की कोशिश किया करते। "
'क्या-क्या दिया है अब तक ?"
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'जब भी कुछ देने आये, मैंने लिया ही नहीं। मेरी निष्ठा की प्रशंसा की। इनको मुझ 'जैसी विश्वस्त सेविका मिलती तो अच्छा होता, यही कहा करते थे। पुरस्कार दुगुना देने का लालच भी दिखाया, मगर मैंने माना नहीं। मुझे बेवकूफ भी कहा। कमाने की उम्र में खूब कमाने की भी राय दी और कहा, 'किन्हीं पुराने जमाने की नेम-निष्ठा का पालन करते-करते जीवन घिस जाएगा। बुद्धिमान बनो!' और बताया, 'मेरा कहना मानो।' मैं इनकी किसी बात में नहीं आयी। यह बात मैंने दण्डनायिकाजी से भी कही थी। उन्होंने दण्डनायकजी को कहा। उन्होंने मुझे बुलाकर सारी बातें मुझसे सुर्नी, और बोले, 'देखो बंगला, पता नहीं क्यों, मुझे शंका हो रही है, यदि वह तुम्हारा उद्धार करना
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार : 137
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