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करने की जरूरत नहीं। और फिर, हम व्यापारी हैं। हम कभी राजघरानों से विरोध नहीं मोल लेते, क्योंकि व्यापारी का सारा कारोबार राजकाज पर ही निर्भर रहता है। तब इन धर्मदर्शी ने कहा, 'शेट्टीजी! आपको मालूम नहीं। यहाँ की रीति ही अलग है। हमें चोलनरेश जैसे बलवान् धर्मभीर चाहिए। यह राजा इस विषय में बहुत नरम हैं। वे पट्टमहादेवी से डरते हैं। पट्टमहादेवी श्रीवैष्णव न बनकर, जैनी ही बनी हुई हैं, यही बाधा है। इसे दूर करना है। ऐसी हालत में हम कैसे चुप रह सकते हैं? आचार्यजी क्या । अकेले अपना सब काम कर सकते हैं ? यदि वे एक को श्रीवैष्णव बनाएँ तो उस एक को चाहिए कि और दस लोगों का मत परिवर्तन कर, वह उन्हें श्रीवैष्णव बनाए। इसलिए शप्रसार करना माईती नहीं। इसके अलावा, प्रभु भी श्रीवैष्णव मतावलम्बी हैं। इसलिए हमारे इस काम में आप मदद करें।' मैंने भी इसे एक सेवा समझकर मान लिया। इसमें, जैसा चात्रिमय्या ने कहा, मेरा कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं था। यदि मुझे दण्ड दिया जाएगा तो इस धर्मदशी को भी दण्ड मिलना चाहिए। उनकी सभी बातें यदि सत्य हैं तो उनकी बेटी रानीजी को भी दण्ड दिया जाना चाहिए।"
"किसे दण्ड देना है, किसे नहीं, यह निर्णय सन्निधान का है। उन्हें तुमसे सलाह लेने की जरूरत नहीं। अभी तुमने जो आरोप लगाया है वह साधारण आरोप नहीं। सन्निधान इसका न्याय करेंगे। परन्तु तुमने जो किया वह केवल श्रीवैष्णव मत का प्रसार नहीं है। इस प्रसार के लिए सुरंग-मार्ग और तलघर आदि की ज़रूरत ही नहीं थी। तुम रतनव्यास के भाई हीराव्यास हो। इस बात को धारानगर की वेश्या चम्या प्रमाणित करेगी। कहो तो उसे बुलाऊँ। इसके अलावा, उधर से और चालुक्यों की तरफ से गुप्तचर जो पत्र लाया करते थे, उनमें से कुछ हमारे कब्जे में हैं। तुम्हारे तलघर की। खोज से प्राप्त और भी अनेक चीजों से हम प्रमाणित कर सकते हैं कि तुम अपराधी हो। तुम स्वयं मान लो तो अच्छा, नहीं तो और अनेक छोटी-छोटी बातों को प्रकट । करना पड़ेगा।" चाविमय्या इतना कहकर बीरशेट्टी के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा।
बीरशेट्टी ने तुरन्त कोई उत्तर नहीं दिया। अचकचाकर इधर-उधर देखने लगा।
"हथकड़ी नहीं पहनायी इसलिए भाग जाने की मत सोचो । वह नहीं हो सकेगा। तुम्हारा पूरा दल हमारे कब्जे में है । इतना ही नहीं, उनमें से जो लोग तुम्हारी जैन बैठकों में जैनी बनकर और वैष्णव बैठकों में श्रीवैष्णव बनकर आते थे, ऐसे तुम्हारे अन्तरंग गुप्तचर भी हमारे कब्जे में हैं। उन लोगों ने कहाँ किस झूठ का प्रसार किया है, सो भी हमें मालूम है। तीनों आचार्यों ने जो बातें बतायीं, उनके लिए हमारे पास गवाह मौजूद हैं। चुपचाप मान लो।'' चाविमय्या ने कहा।
सभा में मौन छा गया। बीरशेट्टी सिर झुकाये खड़ा रहा।
"वह अभी आगा-पीछा कर रहा है। चम्पा को बुलाओ। वैसे ही मायण से कहो कि तलघर में मिले उन पत्रों को भी ले आएँ।'' चाविमय्या ने कहा।
148 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार