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'महाराज की सेवा में प्रमाणपूर्वक विनम्र विनती है। मेरे जिम्मे जो कार्य सौंपे गये उन्हें बहुत होशियारी एवं सतकता से कर रहा हूँ। भाग्य और देवबल, इनके कारण इस बिट्टदेव को विजय पर विजय प्राप्त हुई है। मैंने कई वर्षों के व्यवहार और विनीत आचरण से यह विश्वास पैदा किया है कि मैं इस राज्य का एक निष्ठावान् व्यक्ति हूँ। इन विजयों के कारण अब राजमहल से अधिक अहंकार राज्य की जनता में है। इन सभी विजयों का कारण है, राजा की मदद करने के लिए जनता का कम्मर कसकर तैयार रहना । जनता की इस एकता को तोड़ने के लिए वातावरण इतना अनुकूल नहीं था, अतएव मेरे काम में कुछ विलम्ब हुआ। परन्तु अब भाग्य के पलटने में बहुत वक्त नहीं लगेगा, ऐसा मुझे लगता है। महाराज बिट्टिदेव के श्रीवैष्णव मतावलम्बी हो जाने के बाद हमारा काम आसान हो जाएगा, यह हमने समझा था। परन्तु उनका श्रीवैष्णव होना भी यहाँ को एकता को तोड़ने में समर्थ नहीं हुआ। हाल में महाराज ने एक नया विवाह किया है, जिससे परिस्थिति बदल गयी है। यह नयी रानी श्रीवैष्णव है। उसका पोषक पिता बड़ा महत्त्वाकांक्षी हैं। अब जो उसका स्थान है, उसका महत्त्व वह समझता है। इसलिए वह बहुत बढ़-चढ़कर बोलता है। महाराज के ससुर होने के नाते लोग उसे सह लेते हैं। अन्य धर्मावलम्बियों को वह नीचा समझता है। इससे लोग उससे असन्तुष्ट हैं। वह कहता है कि उसका धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। इस आदमी की मानसिकता को पट्टमहादेवी ने बहुत अच्छी तरह पहचान लिया है। धर्म के नाम पर जनता की एकता को तोड़ने की प्रवृत्ति के कारण उसके चाल-चलन पर कड़ी नजर रखी जाती रही है। इस वजह से उसका गुस्सा बहुत बढ़ गया है। एक बार वह मेरे पास आया और अपना दुखड़ा रोया। तब मुझे लगा कि अब हम अपनी गोट चला सकते हैं। उसे मैंने उकसाया। उसने जाकर अपनी बेटी को उकसाकर छेड़ दिया है। राजमहल में सौतेली डाह अवश्य पैदा हो जाएगी। राज्य में जैन और श्रीवैष्णवों में टक्कर होगी, यह निश्चित है। यह व्याधि बढ़ती जाएगी तो महाराज और पट्टमहादेवी, धर्म के कारण, एक होकर नहीं रह सकेंगे। यह काम बड़ी सफलता से चलाया गया है। विजयोत्सव के साथ अपने को सर्वतन्त्र - स्वतन्त्र घोषित कर विरुदावली धारण की धुन में मस्त रहने के कारण, अन्तःकरण से उस पहले का-सा हेलमेल नहीं रहने से एवं दण्डनायकों में से कुछ श्रीवैष्णवों और कुछ जैनियों के होने की वजह से भी, सेना का भी एकनिष्ठ होना सम्भव नहीं। एक दण्डनायक तो महाराज के श्रीवैष्णव ससुर का घनिष्ठ मित्र भी है। वह अभी जवान है। उस पर हमारी एक लड़की का प्रभाव अब पड़ चुका है। इन बातों के अलावा यह बात भी फैला रखी है कि आगे चलकर श्रीवैष्णव सन्तान को ही सिंहासन मिलना चाहिए। सेना अब दो साल से लड़-लड़कर थक चुकी हैं। तुरन्त दक्षिण की ओर से, और पत्र भेजकर उत्तर की तरफ से भी, एक साथ हमला करवा दें तो इस राज्य का अस्तित्व ही मिट जाएगा। इसी मौके पर छिप
150 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार
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