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मिला है। हमारी इस बात को मान लेने से स्थिति वहाँ तक नहीं पहुंच पायी। हम भी वही चाहते थे, ताकि राज्य की सामान्य जनता में इसकी जानकारी किसी को न हो। यह तिलकधारी मान्यख्नेट का मादिमय्या वास्तव में हमारे गुप्तचर जत्ये का सदस्य है। इसी तरह हमारे गुप्तचर दल के सदस्यों को अलग-अलग भेसों में आप के सभी कार्यकलापों में शामिल करके तुम लोगों के सम्पूर्ण जाल का हमने पता लगा लिया है। किस-किस तरह से तुम धर्म के बहाने परस्पर द्वेष को बढ़ाते रहे, और उसके लिए
औरतों का और सोने-चाँदी का किस तरह उपयोग तुमने किया, इस सबका हमें पता लग चुका है। तुम्हारे ही मुँह से तुम्हारी इन गुप्त बैठकों का सारा इतिहास भी सुन लिया है । इसलिए तुम किसी भी तरह से पार न पा सकोगे। राजगृह, गुरुगृह और जनता, इनमें परस्पर विद्वेष की भावना फैलाकर, अपने बड़े भाई की हार का बदला लेने के लिए चालुक्यों की तरफ से गुप्तचर बनकर तुम यहाँ आकर बसे हो। दुख की बात यह है कि यादवपुरी के धर्मदर्शी को और हमारी महारानीजी को भी बड़ी चालाकी से इस धर्मद्वेष को फैलाने के कुकर्म के लिए तुमने इस्तेमाल किया है। पट्टमहादेवीजी को रानी लक्ष्मीदेवी और धानी से द्वेष है, ऐश चार काके सरने प.: को तुमने कषित किया। और यह कहकर कि पट्टमहादेवी अधेड़ हो चली हैं । इसलिए महाराज का अब छोटी रानी के साथ ज्यादा लगाव है, तुम लोगों ने मौका देखकर छोटी रानी की पट्टमहादेवी बनने के लिए उकसाया। महाराज अब श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी हैं इसलिए उनकी उसी सन्तान को ही सिंहासन मिले जो जन्म से श्रीवैष्णव हो। यह ख्याल उनके मन में तुमने भर दिया। इसी तरह पट्टमहादेवी के बड़े पुत्र को सिंहासन मिलने की परम्परा के बावजूद उन्हें हटाने के इरादे से तुमने इसका प्रचार करना भी शुरू किया कि उन्हें हटाया जाएगा। तुम चाहते थे कि पोसल-राजमहल कौरवों के राजपहल-सा बन जाए । परन्तु यह राजमहल का पुण्य है, यहाँ की जनता का सौभाग्य है कि तुम्हारा सारा षड्यन्त्र खुल गया। चुपचाप अपनी गलती मान लो. क्षमा याचना करो अन्यथा मृत्युदण्ड से नहीं बचोगे।" चाविमय्या ने कहा।
___ "रतनव्यास से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। मैं चालुक्यों के प्रोत्साहन से यहाँ नहीं आया। यह धर्मदर्शीजी एक दिन मेरे पास आये और बोले, 'इस पोयसल राज्य में श्रीवैष्णव सम्प्रदाय की वृद्धि होनी चाहिए और इस सम्प्रदाय का विशेष रूप से विस्तार होना चाहिए । इससे श्री आचार्यजी और रानी लक्ष्मीदेवी दोनों को अत्यन्त हर्ष होगा। इससे लौकिक एवं पारमार्थिक दोनों दृष्टियों से आपका लाभ भी होगा।' मैंने कहा, 'इस सबसे आपका क्या मतलब सिद्ध होगा? बड़े-बड़े लोग मौजूद हैं। महाराज स्वयं आचार्यजी के शिष्य हैं। यदि वे चाहेंगे तो कल समूचा राज्य वैष्णव हो सकता है। आपकी रानी लक्ष्मीदेवी पट्टमहादेवी भी बन सकती हैं। कल उन्हीं को सन्तान राज कर सकती है । यह सब उन्हीं पर छोड़ दीजिए। इस बात को लेकर आपको दिमाग खराब
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 147