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तिलकधारी ने तुतलाहट के स्वर में कहा। " चन्दुगी, अब क्या बोलते हो ?"
हो ?"
"मैं क्या कहूँ ? यह झूठ-मूठ बकता है।"
"झूठ कहने के लिए कोई आधार भी होना चाहिए न ?"
"वहाँ कोई तिलकधारी रहता ही नहीं था।"
चाविमय्या ने तिलकधारी की तरफ मुड़कर पूछा, "बताओ, तुम अब क्या कहते
"
'चन्दुगी का कहना सच है। तिलकधारियों के लिए वहाँ प्रवेश ही नहीं था। इसलिए मैं भी जैन बनकर वहाँ जाता था। इसलिए वह मुझे नहीं पहचान सका । एक दिन बैठक में मैंने सलाह भी दी थी कि श्रीपाल वैद्य गुरुजी को छेड़कर श्रीवैष्णवों का खण्डन करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। "
चन्दुगी ने उस तिलकधारी को सिर से पैर तक गौर से देखा ।
"क्यों, पता नहीं चला ? मैं मान्यखेट का मादिमय्या हूँ न ?" चन्दुगी जमीन की ओर देखने लगा ।
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'आगे क्या हुआ ?" चाविमय्या ने पूछा ।
"
'तब इस चन्दुगी ने कहा, 'ये गुरु किसी काम के नहीं। अलावा इसके, इन लोगों ने राजमहल का नमक खाया है। नी की बात के लिए है। इसलिए इस कमबख्त श्रीवैष्णव बने महाराज को ही खतम कर दें, यह सलाह इसी ने दी। तब इस बीरशेट्टी ने बड़े उत्साह से कहा, 'सो तो ठीक है। परन्तु यह इतना आसान काम नहीं। इधर अंगरक्षक दल बहुत बढ़ गया है।' दूसरे ने कहा, 'तीनों विश्रान्तिगृहों में पहुँचने के लिए भूगर्भ-मार्ग तैयार करवाएँ तो काम आसान हो जाएगा।' तब एक और ने, 'वह कैसे सम्भव होगा ? यह भूगर्भ का कमरा है न ?' प्रश्न किया | चन्दुगी ने कहा कि यह खास व्यक्ति का है, शेट्टी का बनवाया हुआ। किसी को मालूम नहीं। तब एक और ने, 'यह भी तो भूगर्भ मार्ग है' कहते हुए उसकी दीवार पर लगे एक दरवाजे को दिखाया और बताया कि यह सुरंग मार्ग सीधा यादवपुरी के पश्चिम को तरफ के पहाड़ के उस ओर पहुँचाता है। वहाँ के जंगल के बीच में पड़ता है वह
स्थान। "
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'क्यों बीरशेट्टी ? यह सब सत्य है न ?"
"मैं क्या पागल हूँ जो इस तरह की सुरंग बनवाऊँगा ?"
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'पकड़ने आएँ तो छिपकर भागने के लिए। उस रास्ते में एक जगह तुमने जो सोने-चाँदी की ईंटें छिपा रखी थीं, वह सब इस समय हमारे कब्जे में हैं। हमने उस सुरंग मार्ग का पता लगाकर एक जबरदस्त पहरा भी बिठा रखा था, इसलिए कि तुम कहीं छिपकर भाग न जाओ। तुम्हारा भाग्य है कि महाराज से तुम्हें आदरपूर्वक आमन्त्रण
146 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार