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परन्तु हमने उसे देखा न था।" बिट्टिदेव ने कहा।
"ओह! उसे याद करते हुए शरीर अब भी कॉप जाता है।" शान्तलदेवी ने कहा।
शान्तलदेवी के कहने के ढंग को देख रानी लक्ष्मीदेवी के मन में कुतूहल हुआ परन्तु बीरशेट्टी से परिचित होने के कारण और कभी-कभी उसके राजमहल में आतेजाते रहने के कारण इस सन्दर्भ में न बोलना ही अच्छा समझकर, वह चुप रही।
"हाँ, हमने जब उस किस्से को खुद चालुक्य पिरियरसीजी से सुना था, तब एक तरह से हम भी रोमांचित हो उठे थे। अच्छा, अब प्रस्तुत विषय को लें। आगे?" बिट्टिदेष बोले।
"क्या कहते हैं, बीरशेट्टीजी?" चट्टलदेवी ने पूछा।
"कह दिया न! मुझे मालूम नहीं कि यह रतनव्यास कौन है। मैं परमारों का आदमी नहीं।"
"तो आप किसकी तरफ के हैं?"
"किसकी तरफ के माने? मैं अपनी ही तरफ का हूँ। यहीं पैदा हुआ और पला।"
"महासन्निधान के सामने झुठ नहीं बोलना चाहिए। हम खुद ही आपके मुंह से सच कहलवाएँ, तब तक प्रतीक्षा करेंगे तो कठोर दण्ड का पात्र बनना होगा।" चट्टलदेवी ने कहा।
"एक वेश्या से हमें पाठ पढ़ने की जरूरत नहीं 1" क्रोध से दमकता हुआ बोरशेट्टी बोला। दूसरे ही क्षण उसे लगा कि ऐसा नहीं बोलना चाहिए था। परन्तु बात मुंह से निकल चुकी थी।
"शेट्टी! जबान पर काबू रहे। यह राजसभा है। चट्टलदेवी हमारे राज्य की एक निष्ठावती सेविका है।" कुछ गरम होकर पट्टमहादेवी ने कहा।
___ बगल में बैठी रानी लक्ष्मीदेवी ने रानी राजलदेवी के कान में धीरे से कहा, "जो बात सही है उसे कहने पर इन्हें गुस्सा क्यों आना चाहिए?"
राजलदेवी ने कुछ असन्तोष भरी दृष्टि से रानी लक्ष्मीदेवी की ओर देखा।
"जिनकी आत्मा शुद्ध है, उन्हें झूठ बोलनेवाले के सामने डरने की जरूरत नहीं। इसका साक्षात्कार मुझे पट्टमहादेवीजी से हो चुका है। इसलिए मैं इस बात से विचलित नहीं होती। कठोर दण्ड के लिए ही जब वह तैयार है तो हम क्यों पीछे हटें? इस सन्दर्भ में मेरी बहन चंगला से पूछना अच्छा होगा, इसलिए सन्निधान आज्ञा दें तो उसे भी बुलवा लूँ।" चट्टलदेवी ने कहा।
___ "सच्चाई प्रकट करने के लिए जिन-जिन की जरूरत हो वे सभी आएँ । मगर चंगला तो यादवपुरी में है?" बिट्टिदेव बोले।
136 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार