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आचार्यजी के राजधानी में आने के बाद, एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा, 'देखो नंगला, तुमने बहुत विश्वस्त रूप से कार्य का निर्वाह किया है। मैं इसके लिए तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ। अपनी इस कृतज्ञता का प्रदर्शन किस तरह करूँ, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है । और थोड़े दिन रुको। यहाँ की हालत ही बदल जाएगी । तुम कल्पना भी नहीं कर सकोगी कि तब यह बीरशेट्टी क्या बन जाएगा। ऐसे अवसर पर मैं तुम्हें कभी नहीं छोड़ेगा।' यह सुनकर पता नहीं क्यों मैं डर गयी थी। बताना चाहती थी, पर दण्डनायक जी उपस्थित नहीं थे, वैसे ही डरते-डरते इतने दिन तक किसी तरह समय गुजारा है।"
"इस शेट्टी के साथ हिल-मिलकर रहनेवाली औरतें कौन थी, जानती हो?" "जानती हूँ, परन्तु सबको नहीं।" "किस-किस को जानती हो?" "इसके माने ? "वे जन्मतः यादवपुरी की हैं या किसी दूसरी जगह की?"
"यादवपुरी की नहीं। जन्मत: कहाँ की हैं सो भी नहीं जानती। बताती हैं कि वह पहले वेलापुरी और दोरसमुद्र में थीं।"
"वहाँ वह क्या करती थी?" "देवदासी का कार्य।" "उसे छोड़कर इस शेट्टी के साथ चली गर्यो?"
"हाँ। वेलापुरी में चेन्नकेशन के प्रतिष्ठा-समारम्भ पर गान और नर्तन सेवा के लिए नियुक्त ों-यह बात सुनी है।"
"सो तुमको कैसे मालूम हुआ?" "उन्होंने ही बताया था।" "क्या?"
"कहा कि उन्हीं को नृत्य-सेवा करनी थी। तभी यह शेट्टी उन्हें अपने साथ यादवपुरी ले गये।
"राजमहल के आदेश के उल्लंघन का साहस कैसे हुआ उन्हें ?"
।'मैं ज्यादा नहीं जानती। महाराज के ससुरजी के आदेश पर यह शेट्टी उन्हें फुसलाकर साथ ले गये, याही उन्होंने बताया।"
"इस बात को तुमने दण्डनायकजी से कहा?" 'हाँ, बताया था।" "क्या कहा था उन्होंने ?"
"इन लोगों से मैत्री रखकर, उनसे जानने लायक कोई बात हो तो उसकी जानकारी प्राप्त करो।''
140 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार