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बाद आप उन्हें अवश्य ले आएँ।"
"उनके आते ही उन्हें पट्टमहादेवीजी का सन्दर्शन करवा दें। वे वेलापुरी में ही रहेंगी। आगे इस विषय में जो भी कार्य होना हो, उनसे पूछ लें। आपने स्थान की माँग 'की हैं, उसे देने के लिए प्रधानजी के पास खबर भेज दूँगा । और कुछ ?" ब्रिट्टिदेव ने पूछा।
"हम कृतार्थ हुए।" उन तीनों ने एक साथ कहा, और अनुमति लेकर विदा हुए। चिट्टिदेव के उठने के साथ ही सब उठ खड़े हुए।
भोजन के बाद शान्तलदेवी वेलापुरी की तरफ और महाराज आदि यादवपुरी की और रवाना हो गये।
कुछ असन्तोष और अनमने भाव से जो यात्रा शुरू हुई थी वह एक समाधान पूर्ण वातावरण में महाराज और पट्टमहादेवी के मानसिक सन्तोष का कारण बन सकी। दोनों सन्तुष्ट थे।
पट्टमहादेवी इधर उसी शाम बेलापुरी पहुँत्र गर्यो। उधर महाराज बिहिदेव परिवार के साथ सकुशल यादवपुरी पहुँचे। महाराज का आगमन लक्ष्मीदेवी को बहुत सन्तोषदायक लगा। युद्ध विषयक सारी बातों को सुनने की अभिलाषा होने के कारण लक्ष्मीदेवी महाराज बिट्टिदेव को घेरे ही रहीं। युद्ध की बात सुनाते-सुनात एक सप्ताह बीत गया. इसके यह माने नहीं कि दूसरा कुछ काम नहीं हुआ। पर किसी विशिष्ट विषय की ओर महाराज ध्यान नहीं दे सके।
एक बार तिरुवरंगदास आकर महाराज के दर्शन कर गया। लेकिन यह भेंट केवल कुशल प्रश्न तक ही सीमित रही ।
दण्डनायिका एचिक्का के वहीं रहने के कारण रानी राजलदेवी के लिए समय बिताना कठिन नहीं रहा। बीच-बीच में महाराज से उसकी भेंट हो जाया करती थी। रानी लक्ष्मीदेवी के साथ सीमित व्यवहार था । सम्पर्क भी बिल्कुल सीमित रहा। वहीं खुद कुछ पूछती तो बता देती, स्वयं बताने नहीं जाती। कुमार बल्लाल व बिट्टियण्णा भी रहे, इसलिए उसे कोई नये वातावरण में रहने का सा अनुभव नहीं हुआ। ऐसे ही किसी विशेषता के बिना दिन गुजरने लगे।
प्रस्थान के समय जैसा शान्तलदेवी ने कहा था, डाकरस दण्डनायकजी से बातचीत कर हरियाला के साथ भरत के ब्याह की बात पक्की भी कर ली गयी थी। भरत बिट्टियण्णा से उम्र में छोटा था परन्तु था बहुत होशियार बड़े मरियाने घराने का रक्त उसकी धमनियों में बह रहा था। कुमार बल्लाल, बिट्टियण्णा और मरियाने, भरत के आपस में मिलते-जुलते रहने के कारण, उनमें मैत्री गाढ़ी बनती जा रही थी । चार
पट्टमहादेवी शान्सला : भाग चार :: 97